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प्रवचनवात्सल्य आदि हेतुओं से तीर्थंकर-नामकर्म का बन्ध होता है, अतः तीर्थकरत्व में संघ कारण है। लोग बड़े लोगों से पूजित व्यक्ति की पूजा करते हैं। तीर्थंकर संघ की पूजा करते हैं- ऐसा सोचकर लोग भी उस संघ की पूजा करते हैं। तीर्थकर बनने में संघ निमित्त होने से उपकारी है। विनय करने से कृतज्ञता और धर्म का पालन होता है। इससे, धर्म का मूल विनय है- यह सूचित होता है, इन तीन कारणों से तीर्थंकर संघ को नमस्कार करते हैं।
तीर्थकर कृतकृत्य होने के बाद भी तीर्थकर नामकर्म के उदय से उचित प्रवृत्ति में संलग्न रहते हैं। वे जिस प्रकार धर्म-देशना करते हैं, उसी प्रकार संघ को नमस्कार भी करते हैं।
___ संघ की पूजा होने पर विश्व में कोई ऐसा पूज्य शेष नहीं बचा रहता है, जिसकी पूजा न हुई हो, अर्थात् संघ की पूजा करने से सभी पूज्यों की पूजा हो जाती है, क्योंकि समस्त लोक में संघ के अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई गुणी पूज्य नहीं है।
संघ के एक भाग की पूजा करने पर भी पूजा का परिणाम सम्पूर्ण संघ–सम्बन्धी होता है, अर्थात् भाव सम्पूर्ण संघ की पूजा करने का ही होता है, जैसेदेवता, राजा आदि के एक अंग की पूजा करने से भी देवता, अथवा राजा के सम्पूर्ण शरीर की पूजा करने का भाव होता है।
किसी प्रकार के भेदभाव के बिना ही गुणों के निधानरूप संघ की पूजा करना आसन्नसिद्धिक का लक्षण है- ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
संघपूजा महादान है। यही भावयज्ञ या वास्तविक यज्ञ है। यही गृहस्थ-धर्म का सार है और यही सम्पत्ति का मूल है।
इस संघ-पूजा का मुख्य फल निर्वाण (मोक्ष) ही जानना चाहिए। इसके आनुषाङ्गिक फल देवलोक और मनुष्यलोक के सुख हैं। जिस प्रकार खेती का मुख्य फल अनाज की प्राप्ति है, किन्तु अनाज के साथ पुआल भी मिलता है, उसी प्रकार संघ-पूजा का मुख्य फल मोक्ष है तथा देव और मनुष्य रूप शुभगति की प्राप्ति आनुषाङ्गिक है।
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