Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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करने के साधनों के उपयोग में आज्ञा ही प्रमाण है। अपनी मति के अनुसार प्रवृत्ति, चाहे वह तीर्थकर को उद्दिष्ट करके भी हो, तो भी वह संसार-बन्धन का ही कारण होती है, क्योंकि वह परमार्थतः तीर्थंकर को उद्दिष्ट नहीं होती है। आज्ञानुसारी प्रवृत्ति ही परमार्थ से तीर्थंकर को उद्दिष्ट हो सकती है।
कुछ मूर्ख लोग भगवान् जिनेन्ददेव को लक्ष्य में रखकर जिनपूजा आदि कार्य करते हैं, किन्तु वे भगवान् की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं। वे यह नहीं समझते हैं कि एक ओर तो जिनपूजा करके तीर्थंकर को अपना आराध्यदेव मानते हैं, वहीं दूसरी
ओर उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके उनकी ही अवज्ञा करते हैं। इसका कारण यह है कि वे अनादिकाल से मोह के वशीभूत है, इसलिए मोक्ष के अभिलाषी को आज्ञा के अनुसार ही सावधानीपूर्वक सर्वत्र भलीभांति प्रयत्न करना चाहिए। प्रतिष्ठाविधि का प्रतिपादन- प्रतिष्ठा के पूर्व प्रभु परमात्मा को महोत्सवपूर्वक शुभ समय में प्रवेश करवाना चाहिए, क्योंकि शुभसमय में करवाया गया प्रवेश सभी के हृदय में भावोल्लास उत्पन्न करता है तथा संघ में शान्ति और मंगल के कार्य होते है। परमात्मा को प्रवेश करवाने के पूर्व मन्दिर के चारों ओर की भूमि साफ करवाना चाहिए, क्योंकि जहाँ भगवान् विराजित हो, वहाँ चारों ओर किसी भी प्राणी का मृत शरीर अथवा गन्दगी नहीं होनी चाहिए। यह सफाई भी परमात्मा के प्रति बहुमान के भावों को दर्शाती है। जब नगर में कभी भी किसी विशिष्ट व्यक्ति का आगमन होता है, तब अत्यन्त उत्साह और उल्लासपूर्वक सफाई, सजावट आदि तैयारियां की जाती है। तो फिर जगत्पति परमात्मा के प्रति कितना बहुमान होना चाहिए, यह भक्ति तथा भावोल्लास से ही ज्ञात होता है। परमात्मा के प्रति बहुमान कितना है ? इसका कथन आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की सोलहवीं एवं सत्रहवीं गाथा में करते हैं
____ अच्छी तरह से निर्मित उस प्रतिमा के स्थापन की विधि इस प्रकार हैशुभ मुहूर्त में उसका मन्दिर में प्रवेश कराना चाहिए और उस बिम्ब को उचित स्थान पर स्थापित करना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/16 व 17 - पृ. - 137
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