Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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हो, वह जिनेन्द्र-सम्बन्धी हो, तो भी द्रव्यस्तव नहीं होता है, क्योंकि आस्थाशून्य अनुष्ठान भावस्तव का कारण नहीं है।
जो अनुष्ठान भावस्तव का कारण न बने, वह अनुष्ठान द्रव्यस्तव नहीं है, क्योंकि शास्त्र में द्रव्य शब्द प्रायः किसी तरह की औपचारिकता के बिना योग्यता के अर्थ में रूढ़ है, अर्थात् जिसमें भावरूप में परिणत होने की योग्यता हो, उसे ही द्रव्य शब्द से सम्बोधित किया जाता है। शास्त्र में ऐसे अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जिनमें द्रव्य शब्द योग्यता का सूचक है।
मिट्टी का पिण्ड द्रव्य है, क्योंकि उसमें घट बनाने की योग्यता है। अच्छा श्रावक द्रव्यसाधु है और साधु द्रव्यदेव है ऐसा शास्त्र में कहा गया है। तात्पर्य यह है कि मिट्टी भले ही पिण्डाकार है, लेकिन उसमें घड़ा बनाने की योग्यता है। उससे घड़ा बन सकता है, इसलिए वह द्रव्यघट है। सुश्रावक में साधु बनने की योग्यता है, इसलिए उसे द्रव्यसाधु कहा जाता है और साधु में देव बनने की योग्यता होने के कारण उसे द्रव्यदेव कहा जाता है। अप्रधान द्रव्यस्तव - आप्तपुरुषों द्वारा स्पष्ट निर्देश है कि उसी द्रव्यस्तव का महत्व है, जो भावस्तव को उत्पन्न करे। यदि भावस्तव को उत्पन्न नहीं करे, तो वह द्रव्यस्तव की कोटि में नहीं है। यही बात आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की बारहवीं गाथा में कहते हैं
जो भावस्तव का हेतु है, वही द्रव्यस्तव है- यही यहाँ अभीष्ट है, अतः जो उक्त प्रकार के भाव की योग्यता वाला द्रव्यस्तव नहीं है, वह अप्रधान द्रव्यस्तव है।
द्रव्य शब्द योग्यता के अर्थ में ही प्रयुक्त होता हो, ऐसा नहीं है। कभी-कभी वह अयोग्यता के अर्थ में भी लिया जाता है, जिसका प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की तेरहवीं गाथा में उदाहरण के साथ स्पष्ट करते हैं
' पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/13 - पृ.सं. - 104 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/14- पृ.सं. - 104
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