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जिनमन्दिर - निर्माण का अधिकारी
जिनालय का निर्माण कराने वाला श्रेष्ठ भावों से युक्त होना चाहिए, क्योंकि श्रेष्ठ भावों से युक्त व्यक्ति में विवेक जाग्रत होता है और विवेकवान् साधक ही न केवल अपने-आपको दोषों से बचाता है, अपितु अपनी विवेकशीलता से दूसरों को भी दोषों से बचाता है । यदि जिन - मन्दिर का निर्माण करवाने में तत्सम्बन्धी योग्यता नहीं है, तो वह दूसरों द्वारा निन्दा का पात्र बनता है। ऐसे में वह स्वयं तो दोषों को लगाकर प्रभु की आज्ञा को भंग करता ही है, तथा दूसरों की भी जिनाज्ञा भंग करने का निमित्त बनता है, अतः जिनालय - निर्माण में उदार, सम्पन्न, तटस्थ, गुणानुरागी, देवगुरुधर्मानुरागी, विधि का जानकार, सम्यक्तवी, दूसरों मे समकित बीज-वपन हो- ऐसे शुभकार्यों को करने वाला होना चाहिए । जिनालय का निर्माण करने वालों को पूर्णतः जिनाज्ञा का पालन करना चाहिए ।
"आणाए धम्मो", अर्थात् आज्ञा में ही धर्म है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि - पंचाशक की दूसरी से आठवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
जिनभवन-निर्माण योग्य व्यक्ति द्वारा करवाया जाना चाहिए। अयोग्य व्यक्ति द्वारा यह करवाने पर कर्मबन्ध-रूपी दोष लगता है। यदि अयोग्य व्यक्ति जिनभवन का निर्माण करवाएगा, तो आज्ञा का भंग होगा। चूंकि धर्म तो आज्ञा-पालन में निहित है, इसलिए अयोग्य व्यक्ति को आज्ञा भंग होने से दोष लगेगा ।
आप्तवचन का पालन करने से पुण्य अर्थात् शुभकर्म का बन्ध होता है और उसकी विराधना करने से पाप अर्थात् अशुभ कर्म का बन्ध होता है- यही धर्म का रहस्य है । बुद्धिजीवियों को इस रहस्य को जानना चाहिए ।
जिनभवन-निर्माण कराने का अधिकारी वह है, जो गृहस्थ हो, शुभभाव वाला एवं जिनधर्मी हो, समृद्ध हो, कुलीन हो, कंजूस न हो, धैर्यवान् हो, बुद्धिमान हो, धर्मानुरागी हो। गुरु, माता-पिता और धर्माचार्य आदि की स्तुति करने में तत्पर हो,
1 पंचाशक- प्रकरण - • आचार्य हरिभद्रसूरि - 7 /2 से 8 पृ. 116, 117,118
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