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द्रव्यस्तव में भावस्तव होने का कारण- परमात्मा अनन्त गुणों से युक्त है। संसार सागर से तिराने वाले हैं, अठारह दोषों से रहित हैं, अतः द्रव्यस्तव के योग्य हैं। इस प्रकार द्रव्यस्तव करते-करते भावस्तव में प्रवेश पा लिया जाता है, अतः भावस्तव में द्रव्यस्तव ही निमित्त बनता है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की उनचासवीं गाथा में' कहते हैं
भगवान् महनीय गुणों से युक्त हैं, इसलिए द्रव्यस्तव के योग्य हैं- ऐसा अच्छी तरह जानकर जो जीव द्रव्यस्तव में विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं, उनकी आंशिक भाव-विशुद्धि अनुभवसिद्ध हैं। यह भाव-विशुद्धि जिनगुणों कि अनुमोदन से होती है। इस प्रकार द्रव्यस्तव और भावस्तव परस्पर सम्बद्ध हैं। उपसंहार - प्रस्तुत अध्याय में द्रव्यस्तव एवं भावस्तव के विषय में विशेष रूप से जानकारी दी गई है कि मन की विशुद्धि के साथ कौन-सी विधि करनी चाहिए ? यदि विधिपूर्वक विधि करते हुए द्रव्यस्तव और भावस्तव की आराधना की जाती है, तो अवश्य ही वह भव-भ्रमण को मिटाता है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने स्तवविधि-पंचाशक की पचासवीं गाथा में यह निर्देश किया है कि बुद्धिमान् को संकेत ही पर्याप्त है। अपनी क्षमता को जानकर अपने संसार का अन्त करने के लिए बुद्धिमान् लोगों (साधुओं और श्रावकों) को द्रव्य और भाव- दोनों स्तव करने चाहिए। जिनभवन निर्माणविधि- आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि बताने के पूर्व जिनभवन-निर्माणविधि पंचाशक की प्रथम गाथा में अपने आराध्य के चरणों में वन्दन करते हैं
वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके गुरु के उपदेशानुसार महान् अर्थ को धारण करने वाली जिनभवन निर्माणविधि को मैं संक्षेप :
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-6/49- पृ. - 115 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि -6/50 - पृ. - 115 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/1 - पृ. - 116
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