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3. भृतकानतिसन्धान – काम करने वालों का शोषण नहीं करना चाहिए। 4. स्वाशयवृद्धि - शुभ अध्यवसायों की वृद्धि करना चाहिए। 5. यतना - मन्दिर बनवाते समय कम से कम दोष लगे, अर्थात् कम-से-कम जीवों की विराधना हो- ऐसी सावधानी रखना चाहिए। यह जिन-मन्दिर बनवाने की विधि है। ये द्वार गाथाएँ हैं। भूमिशुद्धिद्वार - जिनभवन-निर्माण में भूमि-शुद्धि का ध्यान रखने की आवश्यकता होती है, क्योंकि यही तो आधार-शिला है। यदि मूल अच्छा है, तो फल अपने आप अच्छा ही होगा। सर्वप्रथम यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि भूमि कैसी हो ? भूमि में किसी प्रकार का दोष तो नहीं है, उसमें किसी भी प्रकार का मृत कलेवर आदि तो नहीं है, क्योंकि शुद्धि का प्रभाव सभी के मन पर पड़ता है, जो अन्य लोगों के लिए भी शान्ति का कारण बनता है। यह भूमि ऐसी हो, जहाँ लोगों को बार-बार आने की मानसिकता बने, अतः भूमि की शुद्धि करना अनिवार्य है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन निर्माणविधि पंचाशक की दसवीं गाथा में' कहते हैं
द्रव्य और भाव- इन दो प्रकारों से भूमि की शुद्धि होती है। भूमि के आस-पास सदाचारी लोगों का निवास हो, भूमि में कांटे, हड्डियाँ आदि न हो- यह द्रव्य-शुद्धि है, तथा दूसरे, वहाँ जिनभवन बनाने में अन्य लोगों को कोई आपत्ति न होयह भावशुद्धि है। अयोग्य प्रवेश में जिनमन्दिर निर्माण से होने वाले दोष- जिनालय-निर्माण करने वाला इस बात का अवश्य ध्यान रखे कि जहाँ जिनालय-निर्माण करवाना है, उसके आस-पास कौन लोग रहते हैं ? उनके संस्कार कैसे हैं ? वहाँ के लोग कैसे स्वभाव के हैं ? वहाँ जाने पर धर्म की, धन की, चारित्र की, संस्कारों की, जान की हानि तो नहीं है ? इसी प्रकार साधु, साध्वी के वहाँ जाने पर उन्हें किसी प्रकार से हानि तो नहीं है ? यदि जिनालय के लिए स्थान का चयन करने में इन बातों का ध्यान नहीं रखा गया, तो यह सत्य है कि जिनभवन-निर्माता जिनाज्ञा–भंग के दोष और मिथ्यात्व के दोष का भागी
। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/10 - पृ. - 119
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