Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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हैं, अपने स्वरूप की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि उनमें थोड़ा आरम्भ (पाप) भी निहित होता है। वे अल्प विषमिश्रित दूध के समान हैं। आप्त पुरुषों द्वारा कथित जिनभवन-निर्माण आदि कार्य - द्रव्यस्तव को कम शुद्ध कहने का एक अन्य कारण गृहस्थ जीवन की मानसिकता की अपेक्षा से भी है, क्योंकि गृहस्थ के आसक्त और मोह आदि के वशीभूत होने के कारण उसके अध्यवसाय में गिरावट आ जाती है, इस कारण साधु की अपेक्षा गृहस्थ के अध्यवसाय अल्पशुद्ध बताए गए हैं। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की अठारहवीं से बीसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
__ साधु सभी बाह्य-प्रवृत्तियों में भी अनासक्त होता है, इसलिए उसके क्रिया-व्यापार द्रव्यस्तव की अपेक्षा उत्तम हैं। द्रव्यस्तव करने वाले गृहस्थ तो शरीर, स्त्री
और पुत्रादि में आसक्त होते हैं, इसलिए गृहस्थों का द्रव्यस्तव साधुओं की वैयावृत्य आदि की प्रवृत्ति की अपेक्षा कभी-कभी तो तुच्छ से भी तुच्छ होता है। आसक्तिरूपी मल जीव को अवश्य ही दूषित कर देता है तथा दूषित जीव का व्यापार विष से आक्रान्त पुरुष के व्यापार के समान होता है, अर्थात् जिस प्रकार विष से आक्रान्त पुरुष में चेतना के धूमिल होने से उसका व्यापार अल्प-सार्थक ही होता है, उसी प्रकार आसक्ति वाले जीव का व्यापार भी अल्पशुद्ध ही होता है।
आसक्ति से रहित अकलुषित तथा हिंसादि पापकर्मों से सर्वथा मुक्त साधु का महाव्रत आदि में प्रवृत्तिरूप व्यापार शुद्ध ही होता है, इसलिए साधु का क्रिया-व्यापार हमेशा निर्दोष होता है। भावस्तव और द्रव्यस्तव में भेद - भावस्तव वायुयान की यात्रा के समान है, जबकि द्रव्यस्तव रेल की यात्रा के समान। दोनों एक ही लक्ष्य पर पहुँचने वाले हैं। अन्तर यह है कि भावस्तव वाला किनारे पर आ गया और द्रव्यस्तव वाला अभी बीच तक ही पहुँचा है, अर्थात् वह अभी लक्ष्य से कुछ दूर है। द्रव्यस्तव सातिचार हैं और भावस्तव निरतिचार। द्रव्यस्तव को आलम्बन की आवश्यकता है, जबकि भावस्वत को आलम्बन की आवश्यकता
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/18 से 20 – पृ.सं. - 105,106
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