Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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इसलिए अप्रधान द्रव्यस्तव आज्ञा बाह्य होने पर भी मनोज्ञ फल देता है, अतः उसे भी तुच्छ नहीं मानना चाहिए, क्योंकि ऐसा फल तो प्रकारान्तर से बालतप आदि से भी मिल सकता है। जो फल दूसरे कारणों से मिलता हो, वही वीतराग - सम्बन्धी अनुष्ठान से भी मिले, तो वीतराग-सम्बन्धी अनुष्ठान की विशेषता ही क्या रही ? अर्थात् कुछ भी नहीं । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि भावस्तव का हेतु बनने वाला अनुष्ठान द्रव्यस्तव है, तो फिर जिनभवन-निर्माण आदि अनुष्ठान को भावस्तव कहने में क्या हानि है, क्योंकि आप्तकथित ये अनुष्ठान भी साधुओं के द्वारा की जाने वाली ग्लान–सेवा, स्वाध्याय आदि के समान ही हैं और साधुओं के उपर्युक्त कार्य भावस्तव कहे भी जाते हैं ?
प्रस्तुत प्रश्न का समाधान यह है कि द्रव्यस्तव को भावस्तव का हेतु माना गया है । विशुद्ध के विशुद्धि, विशुद्धितर और विशुद्धितम- ये तीन स्तर होतें हैं तथा जिनभवन-निर्माणविधि आदि आप्त पुरुष कथित हैं और साधु द्वारा किए जाने वाले स्वाध्याय, सेवा आदि भी आप्त पुरुष कथित हैं। यदि ये दोनों आप्तपुरुष कथित हैं, तो दोनों को भावस्तव ही कहना चाहिए। एक को द्रव्यस्तव एवं एक को भावस्तव क्यों कहा जाता है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है, परन्तु जिनभवन-निर्माण आदि में गृहस्थ को राग-भाव होता है तथा वह अंशतः आरम्भ रूप भी होता है, अतः उसमें शुभ अध्यवसाय की मात्रा कम होती है, इस कारण यह भावस्तव का हेतु होने पर भी द्रव्यस्तव ही कहा जाता है। इस बात को सिद्ध करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि - पंचाशक की सोलहवीं एवं सत्रहवीं गाथा में कहते हैं
साधुओं के उपर्युक्त कार्यों से होने वाले शुभ अध्यवसाय की अपेक्षा जिनभवन-निर्माण आदि अनुष्ठानों से होने वाले शुभ अध्यवसाय कम होते हैं, इसलिए वे द्रव्यस्तव हैं। यद्यपि जिनभवन-निर्माण आदि के रूप में द्रव्यस्तव साधु शुभयोग की तरह शुभ होता है और आप्तवचन होने के कारण विहित क्रियारूप भी होता है, तो भी साधु के योग की अपेक्षा तुच्छ है, क्योंकि साधुओं की प्रवृत्तियाँ स्वरूपतः शुभ होती हैं, जबकि द्रव्यस्तवरूप जिनभवन-निर्माण, जिनपूजा आदि कार्य, कार्य की अपेक्षा से ही शुभ
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