Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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नहीं है। द्रव्यस्तव को भावस्तव-संयोग की आवश्यकता है, भावस्तव को द्रव्यस्तव के संयोग की आवश्यकता नहीं है। इसी द्रव्यस्तव और भावस्वत के अन्तर को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की इक्कीसवीं से तेईसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
द्रव्यस्तव किंचित् सावध होने से नहीं, अपितु पतवार से नाव खेकर पार जाने की क्रिया के समान सापेक्ष है और मोक्ष के लिए भावस्तव की अपेक्षा रखने वाला होने के कारण अपूर्ण है। भावस्तव आत्मपरिणामरूप होने से बाह्य-द्रव्य की अपेक्षा से रहित होने के कारण नदी आदि को हाथों से तैरकर पार जाने की क्रिया के समान निरपेक्ष है और द्रव्यस्तव की अपेक्षा से रहित मोक्ष का कारण होने से पूर्ण है।
द्रव्यस्तव बाह्यद्रव्यों की अपेक्षा रखने वाला होने के कारण कड़वी औषधी आदि से दीर्घकालीन रोग के उपशमित हो जाने के समान है, जबकि भावस्तव औषध के बिना ही रोग-निर्मूल हो जाने के समान है।
द्रव्यस्तव से पुण्यानुबन्धी पुण्यकर्म का बन्ध होता है। उसके उदय से सुगति, शुभसत्व आदि मिलते हैं। उसके बाद परम्परा से थोड़े समय के बाद भावस्तव का योग भी मिलता है। भावस्तव की महत्ता - महत्व द्रव्य का भी है और भाव का भी, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा भाव का महत्व अधिक है, क्योंकि भावस्तव वाला परमात्मा की पूर्ण आज्ञा का पालन करता है तथा उसके मन की पूर्णतः विशुद्धि होती है। मन की पूर्ण वि पुद्धि एवं आज्ञा का पालन ही भावस्तव है, इसी कारण भावस्तव का महत्व है तथा इस भावस्तव के महत्व को अन्य सभी आचार्यों ने भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की चौबीसवीं से छब्बीसवीं तक की गाथाओं में प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन किया है
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि -6/21 से 23 - पृ.सं. - 106,107 | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/24 से 26 – पृ.सं. - 107,108
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