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केवल योग्यता के अर्थ में ही नहीं, अयोग्यता के अर्थ में भी कहीं-कहीं द्रव्य शब्द का प्रयोग देखा गया है, जैसे- अंगारमर्दक नामक आचार्य योग्यतारहित होने के कारण द्रव्याचार्य थे और वे आजीवन मुक्ति के अयोग्य रहे। प्रस्तुत विषय का उपसंहार- आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की चौदहवीं गाथा में द्रव्य की अयोग्यता के विषय में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अयोग्यता के अर्थ में भी द्रव्य शब्द का प्रयोग होने से भावस्तव का कारण नहीं बनने वाले अनुष्ठान को भी द्रव्यस्तव के रूप में मानना पड़ता है। हाँ, इतना अवश्य है कि उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है, क्योंकि वह योग्यता-रहित होने से आप्त-वचन के बाहर है। अप्रधान द्रव्यस्तव से भी फल की प्राप्ति - अप्रधान द्रव्यस्तव वैसे तो गौण माना गया है, फिर भी इस स्तव से भी फल की प्राप्ति तो होती ही है। यह स्तव संसार के सुखों को प्रदान करने वाला होता है, जो फल पाकर भी नहीं पाने जैसा रहता है। इस स्तव में संसार का फल पाकर भी यह फल सफल फल नहीं कहलाता, क्योंकि इससे दुःख से मुक्ति नहीं मिलती है। इससे संसार रूपी घास, कृषक को अनाज के साथ मिले हुए घास की तरह प्रधान द्रव्यस्तव की आराधना से भी मिल जाएगी, उसे पाने के लिए क्यों प्रयत्न करें। जिससे मोक्ष का शाश्वत फल मिल सकता है, उससे यदि संसाररूपी नाशवान् फल प्राप्त किया, तो इसमें क्या बुद्धिमानी ? रत्न को प्राप्त किया और उसे कौड़ी के मोल बेच दें, तो क्या यह बुद्धिमानी है ? वीतराग-भाव पाने के लिए धार्मिक अनुष्ठान रूप द्रव्यस्तव की उपलब्धि हुई और उसे संसार के सुख को पाने में गंवा दें, तो क्या वह बुद्धिमानी है ? इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की पन्द्रहवीं गाथा में कहते हैं
सांसारिक विषय-भोगों आदि की प्राप्ति तो द्रव्यस्तव से भी होती है, क्योंकि स्तव के विषय की अपेक्षा से तो द्रव्यस्तव के विषय वीतराग भगवान् हैं। वीतराग भगवान् विषयक कोई भी अनुष्ठान आज्ञा-बाह्य हो, तो भी सर्वथा निष्फल नहीं होता है,
| पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/15 - पृ.सं. - 104 - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/16,17 - पृ.सं. - 105
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