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पूर्वपक्ष - आज्ञा के विपरीत जिन–सम्बन्धी अनुष्ठान उचित हो, तो ही द्रव्यस्तव है। जिन को गाली देना इत्यादि अनुष्ठान उचित नहीं है, इसलिए वे क्रियाएँ द्रव्यस्तव नहीं हो सकती हैं। उत्तरपक्ष - ऐसा मानना आप्तवचन का पालन नहीं है, क्योंकि आप्तवचन से विरुद्ध उचित हो ही नहीं सकता है, अर्थात् जो अनुष्ठान आप्तवचन के विरुद्ध हो, वह उचित अनुष्ठान नहीं है।
उचित कार्य करना ही आप्तवचन का पालन करना है। उचित-अनुचित का विवेक तो बुद्धिमान को होता ही है। ऐसा व्यक्ति यह जानता है कि उचित क्या है और अनुचित क्या है। यदि उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं है, तो वह व्यक्ति जिनाज्ञा का पालन तो क्या, व्यवहार का भी पालन नहीं कर सकता है। आगमवचन है कि उचित अनुष्ठान होने पर भी उसके प्रति बहुमान के भाव यदि नहीं हैं, तो वह आप्तपुरुषों की दृष्टि में द्रव्यस्तव ही नहीं है। द्रव्यस्तव के बिना भावस्तव में प्रवेश ही नहीं होता। भूमि के बिना खेती नहीं है, मिट्टी के बिना घड़ा नहीं है, शरीर के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है। भूमि खेती नहीं है, मिट्टी घड़ा नहीं है, शरीर जीवन नहीं है, परन्तु खेती, घड़ा और जीवन को पाने के लिए भूमि, मिट्टी और शरीर आवश्यक हैं, इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। यदि उपेक्षा कर दी, तो खेती आदि से धान्य आदि पाने का लक्ष्य किसी भी दशा में सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार, द्रव्यस्तव की उपेक्षा करके भावस्तव को प्राप्त नहीं कर सकते, अतः द्रव्यस्तव पहले अति आवश्यक है। इसी बात को सिद्ध करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की आठवीं से ग्यारहवीं तक की गाथाओं में कहते हैं
बुद्धिमान् मनुष्य को हमेशा देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जो उचित हो, उसे ही करना चाहिए। उचित कार्य करने से निश्चित ही फलप्राप्ति होती है और यही आप्तवचन है। जो अनुष्ठान औचित्यरहित हो और आदरभाव से सर्वथा शून्य
पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/8 से 11 - पृ.सं. - 102,103 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/12 - पृ.सं. - 103
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