Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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श्रावकों के लिए दान, उपदेश की विधि – श्रावक भी यथाशक्ति साधुओं को दान दे, क्योंकि दान से ही जगत् में महिमा बढ़ती है। शालीभद्र ने पूर्व भव में खीर का दान दिया। कालान्तर में उसे इसके परिणामस्वरूप पुण्य-प्रकृति के उदय के साथ संयमी जीवन एवं भगवान् महावीर स्वामी की शरण प्राप्त हुई। श्रावक अमीर हो या गरीब, साधुओं को दान देना ही चाहिए एवं अन्यों को भी इस विषय में कहना चाहिए। श्रावकों के लिए यहाँ तक निर्देश है कि यदि श्रावक आहार, वस्त्र आदि का दान नहीं दे सके, तो कम-से-कम साधुओं को आहार के लिए श्रावकों के घर बताएं- यह भी दान का अंग
जगत् में सुपात्र दान का अत्यंत महत्व है, अतः कहा गया है कि श्रावक को अपने उपकारी गुरु एवं गुरु-परिवार को अवश्य दान देना चाहिए। वैसे श्रावकों के लिए यह भी निर्देश है कि श्रावक किसी भी साधु-साध्वियों में भेद न करे, क्योंकि उन सभी में व्रत समान है, अतः उसके लिए सभी समान ही होना चाहिए। श्रावक भी माता-पिता तुल्य होता है, अतः भेद-बुद्धि उसमें कहाँ से होगी ? श्रावक के लिए जो यह निर्देश दिया है कि उसे अपने प्रतिबोधक गुरु को तो अवश्य दान देना चाहिए, वह इस अपेक्षा से कहा गया है कि यदि दान देने की अधिक शक्ति न हो, तो कम-से-कम इतना तो करे। इस प्रकार दान के उपदेश को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की बयालीसवीं तथा तिरालीसवीं गाथा में' कहते हैं
यदि शक्ति हो, तो सुसाधुओं को आहार का दान देना चाहिए और यदि शक्ति न हो, तो श्रद्धालुओं के घर बतलाना चाहिए। शेष वस्त्रादि के विषयों में भी यही विधि है, अर्थात् शक्ति हो, तो वस्त्रादि का दान करें, अन्यथा दाताओं के घर बतलाएं।
गरीब श्रावक, जो सभी साधुओं को वस्त्र नहीं दे सकता है, वह दिशा की अपेक्षा से दिशा के सम्बन्ध से दान दे। गृहस्थ जिस आचार्य से प्रतिबोधित हुआ हो, वह उसके लिए दिशा होता है और धर्म पाने वाले गृहस्थ का उस आचार्य के साथ दिशा का
1 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/42,43 – पृ. - 95,96
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