Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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करना चाहिए । यह निर्देश दिया गया है कि भोजन करने के पूर्व गुरुजनों आदि के चरण स्पर्श कर भोजन करना चाहिए। यह भी मनोविज्ञान है कि भोजन के पूर्व बड़ों का आशीर्वाद लेना चाहिए। बड़ों के आशीर्वाद से भोजन अमृतमय बन जाता है और अमृतमय भोजन मन के विचारों में अमृत का संचार कर देता है। यह अमृत का संचार तन, मन, वचन, विचार, व्यवहार आदि सभी को स्वस्थ बनाता है, अतः स्वस्थता के लिए विधिपूर्वक भोजन करना चाहिए। भोजन के पूर्व किस प्रकार की क्रियाएं करना चाहिए ? इसकी सारी विधि का विवरण आचार्य हरिभद्र ने प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की छत्तीसवीं से लेकर अड़तीसवीं तक की गाथाओं में किया है, जिसे समझकर ही आचरण करना चाहिए। प्रस्तुत विधि निम्न प्रकार से है -
विधिपूर्वक प्रत्याख्यान के पूर्ण होने के थोड़े समय बाद वात, पित्त, कफ, तीन धातुओं के सम बनने और कायादि योगों के स्वस्थ बनने पर शान्तचित्त से भोजन करना चाहिए। गोचरी करने के परिश्रम से शरीर की धातुएँ विषम बन जाती हैं और शरीर अस्वस्थ हो जाता है, इसलिए थोड़े समय बाद जब धातुएँ सम हो जाए और शारीरिक-योग स्वस्थ हो जाए तब शान्तचित्त से भोजन करना चाहिए।
धर्म में अनुरक्त जीव अपनी भूमिका के अनुसार भोजन के समय, अर्थात भोजन से पूर्व करने योग्य क्रियाएँ, जैसे- माँ-बाप, धर्माचार्य और देव की सम्यकरूपेण वंदन-पूजन, परिवार में जो बीमार हो उसकी सेवा तथा नमस्कार मन्त्र का पाठ आदि करके 'मैंने यह प्रत्याख्यान किया है'- ऐसा विशेष रूप से याद करके बड़ों की आज्ञा लेकर विधिपूर्वक भोजन करे। स्वयं-पालन-द्वार - प्रस्तुत द्वार में यह कहा गया है कि प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला मुनि यदि स्वयं प्रत्याख्यान का पालन करता हुआ अन्य मुनियों को आहार लाने हेतु घरों का परिचय दे कि अमुक घर में आहार मिल जाएगा, तो इससे उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है। प्रत्याख्यान भंग तब होता है, जब प्राणातिपात का उपदेश दे अथवा अनुमोदना करे, अतः साधु अन्य साधुओं को गृहस्थों के घर बताएं, तो इसमें
पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/36 से 38 - पृ. - 93,94
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