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लेकिन आप उसमें दो माह से नहीं रह रहे हो। दो माह बाद मकान-मालिक किराया लेने आया। आपने कहा कि हम तो दो महीने स इस मकान में रहे ही नहीं हैं, केवल ताला लगा हुआ है, तो किराया किस बात का ? चाहे मकान में नहीं रह रहे हों, परन्तु आपने मकान को छोड़ा तो नहीं, अपना ताला खोलकर मकान जिसका था, उसे दिया तो नहीं। यदि नहीं लौटाया है, तो किराया तो देना ही पड़ेगा, क्योकि आपने उसमें मेरापन का त्याग नहीं किया, अर्थात् वहां भाव यही रहा कि मकान मेरे पास है, ताला मेंरा लगा हुआ है। इसी प्रकार जब तक भोगों के साधनों का त्याग न कर दे, तब तक पाप की भी भागीदारी खत्म नहीं होती है। विद्यमान वस्तु अथवा अविद्यमान वस्तु का त्याग समझपूर्वक ही होना चाहिए और त्याग करने के बाद प्राप्त हो या नहीं हो, फिर भी दोनों स्थितियों में तटस्थ ही रहना चाहिए। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की संतालीसवीं एवं अड़तालीसवीं गाथाओं में उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
जो वस्तु अपने पास न हो और भविष्य में मिलने की सम्भावना भी न हो, उस वस्तु का प्रत्याख्यान भी लाभप्रद है, क्योंकि उससे आस्त्रव का निरोध होता है, विरति होती है और सर्वज्ञ की आज्ञा का पालन भी होता है।
अविद्यमान वस्तु भविष्य में कभी मिलेगी ही नहीं- ऐसा मानना सर्वथा सत्य नहीं है। अविद्यमान वस्तु भी अचानक मिल जाती है, अर्थात कभी-कभी जिस वस्तु की कोई सम्भावना न हो, वह भी मिल जाती है। इस विषय में गाड़ी का उदाहरण है।
एक बार एक मुनि अनेक भव्य जीवों को उपदेश दे रहे थे। उसे सुनकर एक ब्राह्मण ने उपहास करने के लिए मुनि के पास जाकर ऐसा प्रत्याख्यान लिया कि"मैं गाड़ी नहीं खाऊंगा।
एक दिन वह ब्राह्मण भूखा-प्यासा जंगल से आ रहा था कि एक राजकुमारी उसे सामने मिली। उस राजकुमारी ने गाड़ी के आकार का पकवान ब्राह्मण को खिलाने का नियम लिया था। राजकुमारी पकवान तैयार करके ब्राह्मण को ढूँढ ही
पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि -5/47,48 - पृ. - 97,98
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