Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अध्याय-2
खण्ड (अ) मोक्ष–मार्ग और सम्यग्दृष्टि श्रावक के कर्तव्य
(अ) मोक्षमार्ग –
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के इस द्वितीय अध्याय को हमने दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम विभाग में मोक्षमार्ग के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप की विवेचना की गई है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य हरिभद्र मूलतः आगम परम्परा के अनुसरणकर्ता हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में मोक्षमार्ग के इन चार अंगों की चर्चा की है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य उमास्वाति के पश्चात् मोक्षमार्ग के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की ही चर्चा की जाती रही
और सम्यक्तप का अन्तर्भाव सम्यकचारित्र में ही मान लिया जाता रहा। यही कारण है कि परवर्तीकाल के ग्रन्थों में त्रिविध मोक्षमार्ग का त्रिरत्नों के रूप में उल्लेख मिलता है, किन्तु आगमिक-परम्परा इससे भिन्न रही है। वैसे तो आगमों में द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध
और पंचविध – ऐसे चार प्रकार से मोक्षमार्ग की विवेचना मिलती है। द्विविध मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का अन्तर्भाव सम्यग्ज्ञान में और सम्यक्तप का अन्तर्भाव सम्यकचारित्र में करके ज्ञान और क्रिया- ऐसे द्विविध मोक्षमार्गों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि जैन-दर्शन में चाहे द्विविध मोक्षमार्ग हो, चाहे त्रिविध, चतुर्विध और पंचविध, किन्तु उनमें अंगों को एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं माना गया है। उनके समन्वय में ही मोक्षमार्ग कहा गया है, इसलिए द्विविध मोक्षमार्ग की चर्चा करते हुए यही कहा गया है कि 'क्रियारहित ज्ञान और ज्ञानरहित क्रिया मोक्षमार्ग नहीं हैं, अपितु सम्यग्ज्ञान से युक्त क्रिया ही मोक्षमार्ग है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में इसकी विशेष चर्चा नहीं की है। उन्होनें आवयकनियुक्ति की टीका में इस बात की विस्तार से चर्चा करते हुए यही कहा है कि सम्यग्ज्ञान से युक्त क्रिया ही मोक्षमार्ग है।
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