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तक यह प्रार्थना करना उचित है, उसके बाद नहीं, क्योंकि इस प्रार्थना में भी राग होता है। अप्रत्तदशा में राग नहीं होता है। इसमें साधक मोक्ष और संसार- दोनों से निःस्पृह रहता है, इसलिए वह प्रार्थना भी नहीं करता है।
प्रणिधान भी निदान नहीं है। इसका प्रमाण आगमानुसार आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की छत्तीसवीं गाथा में देते हैं
मोक्ष के हेतुओं की प्रार्थनारूप से, जोकि प्रणिधानसंकल्प के योग्य पुरुषों (अप्रमत्त-संयतो) के होते हैं, उनको निदान नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह आगमसम्मत है। जिस प्रकार बोधिलाभ (जिनधर्म-प्राप्ति) के लिए गणधरकृत 'लोगस्ससूत्र' में की गई प्रार्थना उचित मानी गई है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए। यदि मोक्ष के हेतुओं की प्रार्थना आगम-सम्मत नहीं होती, तो बोधिलाभ की मांग नहीं की जाती, अतः यह सिद्ध होता है कि यह प्रार्थना आगम-सम्मत है।
प्रणिधान निदान नहीं है, क्योंकि शुभसंकल्प को निदान नहीं माना गया, किन्तु दशाश्रुतस्कंध में तीर्थंकरत्व को प्राप्त करने की प्रार्थना का निषेध किया गया है ? प्रतिपक्ष का कहना है कि किसी भी पद को पाने की इच्छा कहीं-न-कहीं भीतर लालसा की सूचक है और यही लालसा महत्वाकांक्षा है, महत्वाकांक्षा अहम् है, और यह अहम् पतन का हेतु है, यह पतन संसार-भ्रमण का कारण है और यह संसार-भ्रमण अपार दुःख की जाल है। इस जाल से अपने-आपको मुक्त करना कठिनतम् कार्य है, अतः इसी कारण निषेध किया गया है कि परमात्मा के सामने किसी भी पद की मांगनी (याचना) न करें, भले यह तीर्थकर का पद ही क्यों न हो।
इसका स्पष्टीकरण आचार्य हरिभद्र ने सैंतीसवीं गाथा के अन्तर्गत् किया
है
तीर्थकरों की समृद्धि देखकर या सुनकर उस समृद्धि को पाने की इच्छा से तीर्थंकर बनने की प्रार्थना करना रागयुक्त है। उसमें उपकार करने की नहीं, अपितु समृद्धि प्राप्त करने की भावना होती है। ऐसी भावना से तीर्थकरत्व नहीं मिलता, उल्टे
2 पंचशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-4/36 – पृ. - 69 । पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-4/37 – पृ. - 70
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