Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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सामायिकता में आगारों की अनावश्यकता की दृष्टान्त से सिद्धि - आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की उन्नीसवीं गाथा में वर्णन करते हैं, कि- सामायिक में आगारों की कोई आवश्यकता नहीं है। इसे उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं कि सामायिक करने वाले के मन में ऐसे भाव होते हैं, जैसे, सुभट (योद्धा) के हृदय में होते हैं। योद्धा के हृदय में "विजय-प्राप्त करना” अथवा “मरना”- ये दो संकल्प होते हैं। ऐसे संकल्प वाले के मन में पीठ दिखाकर भाग जाना अथवा भयभीत हो जाना- ऐसे भाव आते ही नहीं हैं। इसी प्रकार साधु को भी सामायिक में कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना अथवा मरना स्वीकार होता है, परन्तु सामायिक भंग नहीं करूंगा- ऐसा दृढ़संकल्प होता है।
योद्धाभाव तो लौकिक और निम्न स्तर तक तथा उसमें विजय इस भव तक ही सीमित है, जबकि सामायिक करने वाले की विजय-यात्रा तो अनेक भवों तक चल सकती है, इसलिए अयोग्य व्यक्ति को सामायिक देने का निषेध है, जिसका वर्णन आचार्य हरिभद्र ने प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की बीसवीं गाथा में किया है। अयोग्य को सामायिक देने का निषेध - सामायिक योद्धा के मनोभावतुल्य होने से अयोग्यों के लिए शास्त्र में उसका निषेध है, परन्तु जो इस व्रत से पतित हो जाता है, उसके लिए भी उसके बीज मात्र संस्कार भी विशिष्ट लाभप्रद होते हैं।
यहाँ प्रश्न उपस्थित किया गया कि यदि अयोग्य व्यक्ति के लिए सामायिक निषेध है, तो भगवान् महावीर ने गौतमस्वामी को भेजकर किसान को दीक्षा क्यों दिलवाई, जबकि महावीर को ज्ञात था कि यह दीक्षा छोड़ देगा।
भगवान् जानते थे कि वह दीक्षा छोड़ देगा, पर वह यह भी जानते थे कि इसके लिए कुछ समय की दीक्षा भी मुक्तिकारक सिद्ध होगी। दीक्षा छोड़ने से हानि तो होगी, पर उस हानि से अधिक लाभ जानकर भगवान् ने गौतम को दीक्षा देने के लिए भेजा एवं दीक्षा दिलवाई । यहाँ हानि कम एवं लाभ अधिक रूपहेतु था, इसलिए दीक्षा देने में कोई दोष नहीं है।
| पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/20 - पृ. - 88
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