Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि सामायिक योद्धा के अध्यवसाय के समान है, फिर भी कालान्तर में किसी जीव का पतन तो होता ही है, अतः सामायिक को सापवाद मानना ही क्या उचित है ?
प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की चौबीसवीं गाथा में इस प्रकार करते हैं
कालान्तर में, अर्थात् साधु के सामायिक लेने के पश्चात् और योद्धा के युद्ध करते समय किसी कारणवश, अर्थात् साधु में वर्तमान भव के क्षय और मोक्ष के भावों का तथा योद्धा में विजय और मरण के भावों का अभाव होने पर भी साधु को सामायिक स्वीकार करते समय सामायिक स्वीकाररूप भाव तथा योद्धा के युद्ध में प्रवेश करते समय विजय पाने के परिणाम तो होते ही हैं। उस समय साधु के मन में अपवाद स्वीकार करने के भाव नहीं होते हैं।
पुनः यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि ऐसा कैसे हो सकता है कि अपवाद स्वीकार करने के भाव नहीं हो सकते हैं ? कर्मों का क्षयोपशम अनेक प्रकार से होता है, अतः उसमें भी उसी प्रकार के कर्मों का क्षयोपशम ही कारण है। साधु को सामायिक स्वीकार करते समय भी उसके कर्म-क्षयोपशम से ही ऐसे भाव होते हैं कि फिर किसी भी प्रकार से अपवाद की अपेक्षा होती ही नहीं है। जैसे वीर योद्धा में हारने पर भी निराश होकर पीछे लौटने के परिणाम आते ही नहीं है।मरना या विजय प्राप्त करनायही दृढ़-निश्चय होता है। इसी प्रकार साधु भी इसी निश्चय में होता है कि मरना है या कर्मबन्धन तोड़कर मोक्ष पाना है। वह यह सोचता ही नहीं है कि अपवाद स्वीकार करना पड़ेगा। भेदद्वार - प्रश्न होता है कि आहार आहार ह, अर्थात् यह क्षुधा वेदनीय शान्त करने का हेतु है, फिर आहार में भेद क्यों किया गया ? सारे भेदों का समावेश आहार करने पर ही हो जाता है। आहार के भेद को दर्शाने का मात्र एक लक्ष्य है कि दुविहार आदि प्रत्याख्यान करने पर ज्ञात हो सके कि कौनसे आहार का त्याग करना है एवं कौनसा
पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/24- पृ. - 89
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