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प्रत्याख्यान में रखे आगार मूलभाव में बाधक नहीं होते हैं। प्रत्याख्यान में रखे गए आगार प्रत्याख्यान के लिए कोई बोधक तत्त्व नहीं है। वर्तमान में देखते हैं, कि कई बार शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामायिक, पारिवारिक तकलीफें आती हैं, परन्तु उनसे प्रत्याख्यान में कोई असर नहीं होता है। बाधक स्थिति के पैदा न होने के मूल मे स्वयं का मनोबल ही होता है। जिसका मनोबल मजबूत नहीं है, वह अच्छी परिस्थिति में भी आगार के रहते हुए भी मूल प्रत्याख्यान में दोश लगा लेता है, जबकि दृढ़ मनोबल वाला व्यक्ति उनसे प्रभावित नहीं होता है। इसी बात की पुष्टि करते हुए आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की इक्कीसवीं से तेईसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं, -
मरना या विजय-प्राप्त करना- ऐसे संकल्प वाला योद्धा भी विजय प्राप्त करने के लिए युद्ध में प्रवेश करता है, कभी मौका देखकर निकल भी जाता है, कभी स्वयं लड़ना बन्द कर देता है, कभी शत्रु को रोकता है- इस प्रकार अनेक अपवादों का सेवन करता है, लेकिन उन अपवादों से उसके मूल संकल्प पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, उसी प्रकार नवकारसी आदि के प्रत्याख्यान के आगार (अपवाद) उसके मूल भाव को प्रभावित नहीं करते हैं।
___ अपवादों के होने पर भी योद्धा या साधु का जीवन के प्रति जो अनासक्त-भाव ही रहता है, वह अन्यथा परिणत नहीं होता है, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो साधु उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त को स्वीकार करने रूप प्रतिकार और योद्धा भारण की खोजरुप प्रतिकार करता, किन्तु ऐसा दोनों में नहीं देखा जाता है।
अपवादों को स्वीकार करना या युद्ध में प्रवेश-निर्गम आदि करना मूलभाव (साधु के लिए समत्व को प्राप्त करना और योद्धा के लिए विजय प्राप्त करना) में बाधक नहीं है, अपितु उन अपवादों से मूलभाव की सिद्धि की ही सम्भावना दृढ़ हो जाती है। अपवादों को स्वीकार नहीं करने से साधु की सामायिक और योद्धा की विजयेच्छा मूढ़ता-तुल्य हैं। ये अपवाद समभाव और विजय की सिद्धि में साधना का काम करते हैं।
1 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/21 से 23 - पृ. - 88,89
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