Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अनुकूल हो या प्रतिकूल हो, चाहे मान हो या अपमान- सभी प्रसंगों पर, सभी पदार्थों पर जीवन-पर्यन्त समभाव होने के कारण प्रत्येक प्रवृत्ति समभावपूर्वक ही होती है। यदि शारीरिक-प्रतिकूलता में अपवाद-स्वरूप किसी पदार्थ का सेवन करना भी पड़े, तो वह भी समभावपूर्वक ही होता है, यही कारण है कि सामायिक भंग होने का प्रश्न ही नहीं उठता है, इसलिए सामायिक में आगारों की आवश्यकता नहीं होती है, अतः सामायिक में आगार नहीं हैं और प्रत्याख्यान में आगार हैं। इसमें असंगति कहाँ हैं ?
सामायिक चारित्र को निरपेक्ष कहा गया है। चूंकि सामायिक-चारित्र में किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती है, इसी कारण इससे समभाव की सिद्धि होती है। यही बात आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की अट्ठारहवीं गाथा में' कहते हैं, कि
यह सामायिक अपेक्षा-रहित है, क्योंकि इसमें सभी भावों का विषय समता है, अर्थात् सामायिक में सभी पदार्थों में समभाव होता है, अतः उसमें अपेक्षा नहीं होती है।
यहाँ प्रश्न उपस्थित किया गया कि इसमें सर्वसावद्ययोग का त्याग सर्वकाल तक नहीं होता है, इसमें जीवन-पर्यन्त इस प्रकार की काल की मर्यादा है, अतः वर्तमान जीवन के बाद मैं पाप करूंगा- क्या ऐसी अपेक्षा है ? यदि इस जीवन के पश्चात् भी पाप करने की अपेक्षा न हो, तो यावज्जीवन कहकर उसे मर्यादित करने की क्या आवश्यकता है ?यावज्जीवन कहकर यह कैसे कह सकते हैं कि सामायिक अपेक्षा-रहित है ?
सामायिक में जीवन-पर्यन्त ऐसी मर्यादा प्रतिज्ञा-भंग के भय से रखी जाती है, न कि अपेक्षा से, क्योंकि जीवन पूर्ण होने के पश्चात् यदि मोक्ष नहीं मिला, तो देवादि अवस्थाओं में अधिकतम अविरतसम्यग्दृष्टिरूप में ही जन्म होगा, अतः अविरति के कारण पाप होना सम्भव है, इसलिए सामायिक का काल मर्यादापूर्वक होने पर भी निरपेक्ष है।
' पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/18 - पृ. * पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/19 - पृ.
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