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तो राग होता है और न द्वेष, इसी प्रकार अत्याग के प्रति भी न राग होता है और न द्वेष होता है। दोनों ही परिस्थितियों में समत्व की साधना रहती है, अतः सामायिक भंग होने का किंचित् मात्र भी अवकाश नहीं रहता है। यही बात आचार्य हरिभद्र ने प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की पन्द्रहवीं गाथा में कही है
प्रत्याख्यान करने वाला चारों आहार का त्याग कर दे, तब तो ठीक, अन्यथा तिविहार आदि अमुक प्रकार के आहार का त्याग करें, तो उसमें सामायिक का भंग होगा, क्योंकि जिसका त्याग नहीं किया है, उसके प्रति उसका रागभाव है और जिसका त्याग किया है, उसके प्रति द्वेष-भाव है। इसी राग और द्वेश-भाव के कारण उसकी सामायिक अर्थात् समभाव का भंग होता है।
प्रत्याख्यान तिविहार आदि भेद से लिया जाए, तो भी वह सामायिक का बाधक नहीं होता है, क्योंकि तिविहार आदि प्रत्याख्यान करने वाला त्याग नहीं किए गए आहार में प्रवृत्ति और त्याग किए गए आहार में निवृत्ति समभावपूर्वक करता है। जिस प्रकार साधु को एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर जाने में छोड़े हुए स्थान के प्रति द्वेष नहीं होता है और स्वीकार किए गए स्थान के प्रति राग भी नहीं होता है, अपितु वह दोनों स्थानों के प्रति समभाव रखता है, उसी प्रकार त्यक्त और अत्यक्त भोजन कि प्रति भी उसमें समभाव ही होता है।
यहाँ प्रश्न उपस्थित किया गया कि सामायिक में आगार क्यों नहीं रखा गया, जबकि नवकारसी आदि प्रत्याख्यान छोटें हैं, फिर भी उनमें आगार रखें गए हैं, यह युक्ति कहाँ तक संगत है ?
प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की सोलहवीं एवं सत्रहवीं गाथाओं में किया है
__आगार वहाँ रखें, जहाँ व्रत भंग होने का प्रसंग हो। जहाँ व्रत भंग का अवकाश ही न हो, वहाँ आगार की क्या आवश्यकता है ? सर्वसावद्ययोगरूप सामायिक में चाहे त्याग हो या अत्याग, चाहे शत्रु हों या मित्र, चाहे ज्ञान हो या अज्ञान हो, चाहे
2 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि -5/15 - पृ. - 85 ' पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/16 से 17 – पृ. - 86
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