Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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मिले या न मिले, विद्यार्थी को तो लाभ मिलता ही है । अन्न सेवन से अन्न को लाभ मिले
या न मिले, पर अन्न का सेवन करने वालों को तो लाभ मिलता ही है।
कही है
यही बात आचार्य हरिभद्र ने पूजाविधि - पंचाशक की चंवालींसवीं गाथा में
जिस प्रकार मन्त्रविद्यादि की साधना से मन्त्रादि को लाभ नहीं होने पर भी साधक को लाभ होता है, अग्नि आदि के सेवन से अग्नि आदि को लाभ नहीं होने पर भी सेवन करने वाले को लाभ होता है, उसी प्रकार जिनपूजा से जिनेन्द्रदेव को लाभ नहीं होने पर भी उनकी पूजा करने वाले (पूजक) को लाभ अवश्य होता है।
पूजा में जीवहिंसा है- यह मानकर पूजा नहीं करना मूर्खता है । गृहस्थी - सम्बन्धी कार्यों के द्वारा हो रही हिंसा से किसी प्रकार का भय नहीं है, न राग, द्वेष, कलह से होने वाली भावहिंसा से भय है, पर पूजा में हिंसा बताकर हिंसा से बचाने कि लिए लोगों को उपदेश दिया जाता है । द्रव्यपूजा करने से हिंसा का दोष लगता हैऐसा मानकर गृहस्थ द्रव्यपूजा और भावपूजा से वंचित रह जाते है, जबकि पूजा तो विघ्नों को दूर करती है। यदि पूजा हिंसारूप होती, तो पूजा से विघ्न - निवारण कैसे होता ? अतः पूजा धर्म है- यह बात मनगढ़न्त नहीं है, आगम-सम्मत है। भगवती सूत्र में द्रव्य या भावपूजा का वर्णन देखन को मिलता है । 1
आचार्य हरिभद्र पूजाविधि - पंचाशक की पैंतालीसवीं एवं छियालीसवीं गाथा पूजा नहीं करने वालों को उलाहना देते हुए कहते हैं
मोक्षाभिलाषी को पूजा अवश्य करनी चाहिए। जो गृहस्थ शरीर, घर, पुत्र, कलत्रादि के लिए खेती आदि द्वारा जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं, उनकी जिनपूजा में जीवहिंसा के भय से अप्रवृत्ति मूर्खता ( मोह) ही है, अन्यथा जिससे अनेक लाभ होते हैंऐसी जिनपूजा में प्रवृत्ति क्यों नहीं करें ?
1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 4/44 - पृ. - 72 प्रमाण
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 4/45,46 - पृ. 73
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सज्जनजिनवन्दनविधि - आनन्दघनजी सुविधिजिनस्तवन- पृ. 176
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