Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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प्रस्तुत मत का समर्थन करते हुए विशेष रूप से स्पष्टीकरण आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की तैंतालीसवीं और चौंवालीसवीं गाथाओं में करते हैं
दूसरे कुछ आचार्यों के मत में तीसरे एवं चौथे प्रकार की वन्दना जिनवन्दना नहीं है। उनका यह मत भी युक्तिसंगत माना जा सकता है, क्योंकि उन वन्दनाओं में जो भाव होना चाहिए, वे नहीं होते हैं, इसलिए जैन-दृष्टि से वन्दना की शुरुआत ही नहीं हुई, अतः उन तीसरे और चौथे प्रकार की दो वन्दनाओं से, अर्थात् नाममात्र की जिन-वन्दना से इस लोक में क्षुद्र उपद्रवों का नाश, धन-धन्यादि की वृद्धि, परलोक में विशिष्ट देवयोनि की प्राप्ति और कालान्तर में मोक्षरूपी शुभ फल की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु जिन-वन्दना की विराधना से मिलने वाला उन्माद-रोग, धर्मभ्रंश आदि दुष्ट फल भी नहीं मिलता है।
उभयजनन स्वभाव वाली यह जिनवन्दना विधिपूर्वक करने पर मोक्षादि इष्ट फलदायिनी होती है और विधिरहित करने पर धर्मभ्रंश आदि अनिष्ट फलदायिनी होती हैऐसा नियम है। लौकिकी-वन्दना ऐसी नहीं होती। जैसे इस लौकिकी-वन्दना से मोक्षादि इष्ट फल नहीं मिलता, तो धर्मभ्रंश आदि अनिष्ट फल कैसे मिल सकता है ? उसी प्रकार तीसरे एवं चौथे प्रकार की वन्दना से मोक्षादि इष्ट फल भी नहीं मिलता है तथा धर्मभ्रंश आदि अनिष्ट फल भी नहीं मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार – सम्यक् श्रद्धा के अभाव में सम्यक् वन्दना नहीं है, मिथ्या वन्दना है, अतः वह मोक्ष का कारण नहीं हो सकती यह नितान्त सत्य है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की पैंतालीसवीं गाथा में कहते हैं -
तीसरे एवं चौथे प्रकार की वन्दना में जिन आदि शब्द होने से वह जिन-वन्दना भी लौकिकी-वन्दना जैसी होती है, ऐसा न्यायपूर्वक जानना चाहिए। इस वन्दना में सम्यक् श्रद्धा आदि भाव नहीं होने के कारण वह मृषावाद से युक्त है, साथ ही मोक्षादि फल नहीं मिलने के कारण यह जिन-वन्दन मिथ्या है।
1 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि- 3/45 - पृ. - 54
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