Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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उत्तम द्रव्यों के कारण उत्तम भाव होने से अपने वैभव के अनुसार उत्तम पुष्पादि साधनों से बुद्धिमान लोगों को जिनेन्द्रदेव की बहुमानपूर्वक पूजा करना चाहिए। विधिद्वार - जहाँ पूजा की सामग्री उत्तम होना चाहिए, वहीं उस सामग्री को कैसे चढ़ाना- यह विधि भी उत्तम होना चाहिए, अर्थात् परमात्मा के चरणों में पुष्प चढ़ाएँ, तो व्यवस्थित रूप से सजाएँ, जिससे देखने वाले प्रभू परमात्मा की प्रशंसा करें कि भगवान् कितने सुन्दर लग रहे हैं। नैवेद्य चढ़ाएं, तो उसे भी सजाकर चढ़ाएं, स्वस्तिक बनाएं, तो एक-समान बनाएं, नए-नए ढंग से हर दिन स्वस्तिक बनाएँ, जिससे बनाते समय स्वयं को एवं देखन वालों को कुछ क्षणों के लिए भावों की तन्मयता बने, क्योंकि पूजा में एकाग्रता का होना आवश्यक है। यदि सामग्री के अनुरूप चिन्तन करते हुए व्यवस्थित रूप से सजाकर चढ़ाते हैं, तो मन की एकाग्रता अवश्य बनती है।
पूजा करते समय यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि हमारा उच्छवास प्रभु पर न जाए, इसलिए मुखकोश आठपट्ट को नासा से ठोड़ी तक बांधना चाहिए, तथा पूजा करते समय अपने हाथों का स्पर्श अपने शरीर के किसी भी अंग से नहीं करना चाहिए, क्योंकि हमारा शरीर पसीने आदि दुर्गन्ध से युक्त होता है। यदि पूजा के समय हाथों को शरीर से स्पर्श करते हैं, तो प्रभु परमात्मा की आशातना होती है। इन आशातनाओं से बचने के लिए प्रभु परमात्मा के प्रति अत्यन्त बहुमान होना चाहिए, क्योंकि परमात्मा का बहुमान करने से ही स्वयं को भी जगत् में बहुमान मिलता है।
व्यवहार में अनुभव होता है कि हम-आप किसी का काम करते हैं, तो वह भी हमारा सहयोग करने को तैयार रहता है। हम किसी से मधुर बोलते हैं, तो सामन वाला भी हमसे मधुर बोलता है।
एक सेवक भी स्वामी की सेवा करके सेवा का फल प्राप्त कर लेता है, तो एक भक्त भगवान् की सेवा करके भगवत् पद को क्यों नहीं पा सकता ? पा सकता है, पर शर्त यह है कि पूजा बहुमानपूर्वक, समर्पणपूर्वक, विधिपूर्वक होना चाहिए। यही बात
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