Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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गुभभाव के हेतु ही रहते हैं। जैसे, विषधर ने किसी को डंस दिया हो और विष उतारने के लिए मन्त्र बोला जा रहा हो, पर विषधारी को मन्त्र के अर्थ का ज्ञान नहीं है, फिर भी मन्त्र उसके जहर को समाप्त कर रहा है, क्योंकि मन्त्र का प्रभाव है, वैसे ही स्तुति-स्तोत्र का अर्थ समझ में नहीं आ रहा है, फिर भी शुभभावोल्लास से बोला जा रहा है, तो वे स्तुति-स्तोत्र आदि अशुभ कर्मरूप जहर को समाप्त करते ही हैं, अतः स्तुति-स्तोत्रपूर्वक चैत्यवन्दना करना- इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की तेईसवीं से लेकर अट्ठाइसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
उपर्युक्त विधिपूर्वक जिनपूजा करने से भगवान् जिनेन्द्रदेव के प्रति बहुमान (सम्मान) भी होता है और नियमपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। सारभूत स्तुति तथा स्तोत्र सहित चैत्यवन्दन से भी भगवान का सम्मान होता है। विशेष- (एक श्लोक को स्तुति व अनेक भलोकों को स्तोत्र कहते हैं।)
भगवान् जिनेन्द्रदेव के सद्भूत गुणों का संकीर्तन करने वाली गम्भीर पद और अर्थ से युक्त सारभूत (श्रेष्ठ) स्तुतियाँ या स्तोत्र होने चाहिए।
उन स्तुतियों और स्तोत्रों के अर्थ का ज्ञान होने पर नियमतः परिणाम शुद्ध होता है, क्योंकि उनका भाव शुभ होता है और जिनका अर्थ का ज्ञान नहीं होता है, उनका भी रत्नज्ञानन्याय से परिणाम शुभ ही होता है।
जिस प्रकार ज्वरादि का शमन करने वाले रत्नों के गुण का ज्ञान रोगी को नहीं होने पर भी रत्न उसके ज्वर को शान्त कर देता है, क्योंकि रत्न का यह स्वभाव ही होता है, उसी प्रकार भावरूपी रत्नों से युक्त स्तुतिस्तोत्र भी शुभभाव वाले होने के कारण उनके अर्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी कर्मरूपी ज्वरादि रोगों को दूर कर देते हैं।
____ सारभूत स्तुति-स्तोत्रों से शुभ परिणाम होने के कारण पूजा करने के बाद स्तुति-स्तोत्रपूर्वक ही चैत्यवन्दन करना चाहिए। चैत्यवन्दन जिनाज्ञा के अनुसार अस्खलित गुणों से युक्त और भावपूर्वक ही करना चाहिए। अस्खलित गुण आदि अनुयोगद्वार ग्रन्थ से जान लेना चाहिए।
पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि-4/23 से 28 - पृ. - 64 से 66
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