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की भी पवित्रता नहीं रहेगी, अतः मन की पवित्रता के लिए तन की पवित्रता भी आवश्यक है, इसलिए प्रभु-पूजा के लिए स्नान आवश्यक है। वर्तमान में कई लोगों का प्रश्न है कि स्नान करने पर हिंसा होती है, और हिंसा में कैसा धर्म है ? यह तो धर्म के विरूद्ध है। सर्वप्रथम, हमारे यहाँ हिंसा वह बताई गई है, जिससे हिंसित व्यक्ति के मन में हिंसा करने वाले व्यक्ति के प्रति परिणामों में क्रूरता आए, किन्तु ऐसी हिंसा स्नान करने में, पुष्पादि चढ़ाने में नहीं होती है। पानी, पुष्प आदि में हिंसा है, पर ऐसी हिंसा में स्व-पर कल्याण के ही भाव हैं न कि हिंसा के भाव। घर से गाड़ी में स्थानक (उपाश्रय) प्रवचन सुनने गए, हिंसा हुई, पर भाव प्रवचन सुनने के थे, गुरु-दर्शन के थे, तो वह हिंसा स्व-पर कल्याण का कारण बनी। आपके बच्चे ने गलत हरकत की। आपने उसे चांटा मारा, पर आपको हिंसा का दोष नहीं लगा, क्योंकि आपमें उसको सुधारने के भाव थे। आपने सरोवर खुदवाया, हिंसा हुई, पर आपके भाव परोपकार के थे, अतः हिंसा होकर भी हिंसा का पाप नहीं लगा, अतः, द्रव्यपूजा के लिए स्नान करना आदि दोषरुप नहीं हुआ। हाँ, यदि अपनी विभूषा के लिए स्नान किया जाता है, तो हिंसा है, क्योंकि इस स्नान में आसक्ति है। प्रभुपूजा के उद्देश्य य से स्नान करने का विधान है और इस स्नान की विधि में विवेक, यतना रखने की बात कही गई है कि एक लोटे पानी से स्नान हो सकता है, तो एक बाल्टी पानी का दुरुपयोग न करें। स्नान किए हुए पानी को सूखे स्थान (मिट्टी अथवा छत) पर डालें, स्नान-परात या टब में बैठकर करें, पानी की एक बूंद भी नालि आदि में व्यर्थ नहीं जाना चाहिए, जिससे धर्म के निमित्त में होने वाली सूक्ष्म हिंसा से भी बचा जा सकता है। इस प्रकार भाव से तो पूर्णतः हिंसा से बचे हुए होते हैं, द्रव्य से और बच सकते हैं, क्योंकि द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि- दोनों की पूर्णतः अपेक्षा है।
____ इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की नौवीं से तेरहवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
' पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-4/9 से 13 – पृ. - 59 से 61
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