Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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भावपूजा में परमात्मा को हृदय में स्थापित कराना होता है और द्रव्यपूजा में परमात्मा की मूर्ति की उपर्युक्त द्रव्यों से पूजा करना होती है।
गृहस्थ-वर्ग द्रव्यपूजा करके भावपूजा में स्थित होने का प्रयत्न करता है। चूंकि हृदय के भावों को स्थिर रखना एक कठिन कार्य है, अतः वह द्रव्य के माध्यम से भाव को लाने का पुरूषार्थ करता है। इसी कारण गृहस्थ-वर्ग के लिए द्रव्यपूजा का विधान किया गया है। भावपूजा में परमात्मा के बिम्ब को भावों के आलम्बन का आधार बताया गया है। जहाँ गृहस्थ के लिए द्रव्यपूजा-युक्त भावपूजा कही गई है, वहीं साधु के लिए मात्र भावपूजा कही गई है, क्योंकि अपरिग्रही साधु का मन इतना सधा हुआ होता है कि उसे द्रव्यपूजा की आवश्यकता नहीं है तथा साधु सचित्त वस्तुओं का त्यागी होता है, अतः द्रव्यपूजा का साधुवर्ग क लिए निषेध किया गया है। पूजा की व्युत्पत्ति और परिभाषा - भाषा-विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. सुनीतिकुमार चाटुा ने 'पूजा' शब्द की द्राविड़ उत्पत्ति स्वीकार करते हुए लिखा है कि 'पूजा में पुष्पों का चढ़ाया जाना आवश्यक है, अतः यह पुष्पकर्म कहलाता है। इसी आधार पर पूजा की व्याख्या करते हुए 'मार्क कॉलिन्स' ने उसे द्राविड़ शब्द घोषित किया है, जो "पू"
और "गे" से मिलकर बना है। 'पू' का अर्थ है- पुष्प और 'गे' का अर्थ है- करना। इस तरह 'पूगे' का मिला हुआ अर्थ निकला- 'पुष्पकर्म' अर्थात् फूलों को चढ़ाना। इसी 'पुगे' से पूजा शब्द 'पुसु' या 'पुचु' द्राविड़ धातु से बना है, जिसका अर्थ है- चुपड़ना, अर्थात् चन्दन या सिन्दूर से पोतना अथवा रुधिर से रंगना। पूर्व समय में पूजा का यह ही ढंग
था।
अभिधान राजेन्द्रकोश में 'पूजा' शब्द 'पूज' धातु से माना गया है। 'पूज' ही 'गुराश्च हलः' के द्वारा दीर्घ होकर पूजा का रूप धारण कर लेता है। 'पूज' धातु पुष्पादि के द्वारा अर्चन करने में, गन्ध, माला, वस्त्र, पात्र, अन्न, और पानादि के द्वारा सत्कार अर्थ में, स्तवादि के द्वारा उपचार करने में आती है।'
जैन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि - डॉ. सागरमल जैन - प्र. - 23 अभिधान राजेन्द्रकोश - श्री राजेन्द्रसूरि - भाग-5 -पृ. - 1073
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