Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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वह भाव-चैत्यवन्दन अर्थात् प्रभुभक्ति है, क्योंकि भाव चैत्यवन्दन ही कर्मरूपी शत्रुओं से रक्षा करने में समर्थ है, इस पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए। अन्य धर्मावलम्बियों ने कहा है, इसलिए गलत है- ऐसा मानकर उपेक्षा नहीं करना चाहिए, क्योंकि अन्य धर्मावलम्बी भी हर विषय में असत्य नहीं होते। इस प्रकार, पंचाशक-प्रकरण में भाव-चैत्यवन्दन के लक्षण सम्बन्धी विचारणा सम्यग्रूपेण की गई है। सूत्र बोलने की मुद्रा का निर्देश -
आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की सतरहवीं से इक्कीसवीं गाथाओं तक में' मुद्राओं का विवरण दिया है, अर्थात् यह बताया है कि किन सूत्रों को किन मुद्राओं से बोलना चाहिए
प्रणिपात-मुद्रा को पंचांगी-मुद्रा से बोलना चाहिए। स्तवपाठ (नमोत्थुणं) को योगमुद्रा से बोलना चाहिए। अरिहंत चेइआणं सूत्र जिनमुद्रा से बोलना चाहिए। प्रणिधानसूत्र मुक्ताशुक्ति मुद्रा से बोलना चाहिए। प्रणिपातसूत्र को इच्छामि खमासमणो-सूत्र भी कहते हैं। स्तवपाठ को णमुत्थुणं-सूत्र भी कहते हैं। अरिहंत चेइआणं को सिद्धस्तव भी कहते हैं। प्रणिधानसूत्र को जयवीयराय भी कहते हैं।
पंचांगी-मुद्रा को प्रणिपात मुद्रा भी कहते हैं। पंचागी मुद्रा का स्वरूप - दोनों घुटनों, दोनों हाथों एवं मस्तक- इन पांच अंगों को सम्यक् प्रकार से झुकाना पंचांगी-मुद्रा (प्रणिपात-मुद्रा) है। योगमुद्रा का स्वरूप - दोनों हाथों की अंगुलियों को एक-दूसरे से मिलाकर हथेली को कोशाकार (कमल की कली) के समान बनाकर पेट के ऊपर दोनों हाथों के कूर्पर (कुहनी) को स्थित करना योगमुद्रा है। जिनमुद्रा का स्वरूप - जिन अर्थात् अरिहन्त जिस प्रकार कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं, वह जिनमुद्रा कहलाती है। खड़े होकर दोनों पांवों के आगे के भाग में चार
| पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/17 से 21 - पृ. 42
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