Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अंगुल और पीछे के भाग में चार अंगुल से कुछ कम अन्तर रखने पर जिनमुद्रा होती
मुक्ताशुक्ति-मुद्रा का स्वरूप - एक घुटना झुकाकर और एक घुटना खड़ा रखकर बैठने और दोनों हाथों को आमने-सामने रखकर हथेली के मध्य भाग को कुछ फूलाकर दोनों हाथ ललाट पर लगाने से मुक्ताशुक्ति-मुद्रा बनती है। सम्पूर्ण चैत्यवन्दन में उपयोग की आवश्यकता - दर्शक जब परमात्मा के सम्मुख चैत्यवन्दन करता है, तब पूर्णतः एकाग्रता होना चाहिए, क्योंकि यदि मन का उपयोग क्रिया में नहीं है, तो वह क्रिया शून्य समान है, "उपयोगेयेधर्मः", अर्थात् उपयोग में ही धर्म है। उपयोग के बिना सारी क्रियाएं केवल कर्म (आस्रव हेतु) हैं, अतः चारों ओर से मन को हटाकर केवल प्रभु परमात्मा, सूत्र, अर्थ, विधि आदि में उपयोग लगाना चाहिए, जिससे विधि-पूर्वक चैत्यवन्दन हो, जिससे कर्म निर्जरा हो सके और मोक्ष के सुख को प्राप्त किया जा सके।
आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की बाईसवीं एवं तेईसवीं गाथाओं में' इसे स्पष्ट करते हुए चैत्यवन्दनविधि में चैत्यवन्दन-सम्बन्धी विषयों में उपयोग की चर्चा की है।
1. क्रियाएँ - मुद्रा करना, मुँह के आगे मुँहपत्ती लगाना, भूमिप्रमार्जना
करना वगैरह क्रियाएँ हैं। इनमें उपयोग लगाना चाहिए। 2. सूत्रों के पद, इसी प्रकार, 3. अकारादि वर्ण 4. सूत्रों के अर्थ और 5. जिनप्रतिमा - इन पाँचों में उपयोग लगाना चाहिए।
वे उपर्युक्त बात को छिन्न-ज्वाला के उदाहरण से सिद्ध करते हैं – जिस प्रकार मूल ज्वाला से नई-नई ज्वालाएँ निकल कर मूल ज्वाला से अलग दिखती हैं, फिर भी उनको मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानना पड़ता है, क्योंकि अलग हुई ज्वाला के परमाणु
1 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/22,23
- पृ. 42
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