Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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भी रूपान्तरित होकर वहाँ मूल ज्वाला के समीप ही अवश्य रहते हैं, किन्तु दिखलाई नहीं पड़ते हैं। एक घर में रखे गए दीपक का प्रकाश दूसरे घर में दिखलाई पड़ता है। यहाँ मूल घर के झरोखे से प्रकाश निकलकर आया होने पर भी स्पष्ट रूप से दिखलाई नहीं देता है, फिर भी प्रकाश निकला है- ऐसा मानना पड़ता है, क्योंकि निकले बिना दूसरे घर में प्रकाश जा ही नहीं सकता है। उसी प्रकार, छिन्न ज्वाला(मूल ज्वाला से अलग हुई ज्वाला) मूल ज्वाला से सम्बद्ध नहीं दिखती, किन्तु उसके परमाणु मूल ज्वाला के पास होने से उसे मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानना पड़ता हैं। उसी प्रकार ही, प्रस्तुत चैत्यवन्दन में भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न उपयोग होने पर भी उपयोग का परावर्त अति तीव्र गति से होने पर से हमें एक ही उपयोग दिखलाई देता है, किन्तु शेष उपायोगों के भाव भी वहाँ होते हैं।
एक ज्वाला के मूल ज्वाला से अलग होने के बावजूद उसके परमाणुओं का अभाव नहीं होता है, क्योंकि यदि उन परमाणुओं का सर्वथा अभाव माना जाए, तो ज्वाला की जो सन्तति (प्रवाह) दिखलाई देती है, वह दिखलाई नहीं पड़ेगी, क्योंकि नई ज्वालाएँ मूल रूप से अलग होने क बावजूद उनके परावर्तित परमाणु वहाँ होते हैं, दिखलाई नहीं देते हैं। उसी प्रकार, एकाग्रचित्त का एक समय में एक ही विषय में उपयोग होता है, किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य विषयों के परमाणु (भाव) भी वहाँ मौजूद होते हैं। यह बात अलग है कि वे वहाँ दिखलाई नहीं देते हैं।
प्रश्न उपस्थित होता है कि चैत्यवन्दन की सभी विधियों में एक ही समय में एक साथ उपयोग (भाव) कैसे संभव हो सकता है ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की चौबीसवीं एवं पच्चीसवीं गाथाओं मे' दिया है कि मुद्रा आदि में सतर्क रहने का मुख्य कारण है- भावशुद्धि, क्योंकि भावशुद्धि के लिए ही चैत्यवन्दन की प्रक्रिया है। क्षायोपशमिक-भाव (मिथ्यात्व और मोहनीय आदि कर्मों के क्षय एवं उपशमित होने की दशा में) परम आदरपूर्वक किए गए चैत्यवन्दनादि अनुष्ठान (आचरण) में उन-उन कर्मों के उदय के कारण कभी-कभी शिथिलता भी आ जाती है,
। पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-3/24,25 - पृ. 45,46
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