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अध्याय-2
खण्ड (ब) ... सम्यग्दृष्टि-श्रावक के कर्तव्य पंचाशक-प्रकरण के प्रथम प्रकरण का नाम 'श्रावकधर्मविधि' है। यूं तो श्रावक का अर्थ है- सुनने वाला, परन्तु जैन-ग्रन्थों में श्रावक के अनेक पर्यायवाची नाम प्राप्त होते हैं, देश-विरत, संयमासंयमी, देशचारित्री, उपासक, श्रमणोपासक, देश-संयमी, आगारी, अणुव्रती, गृहस्थ, सागार, गेही, गृही, गृहमेघी आदि।
श्रावक शब्द के अर्थ को प्रकट करते हुए पं. आशाधर ने कहा है कि जो सम्यग्दृष्टि अष्ट मूलगुणों और बारह व्रतों का परिपूर्ण रूप से पालन करता है। पंच परमेष्ठियों के चरणों को शरण समझता है, प्रधान रूप से चार प्रकार की पूजाओं को करता है तथा भेद-विज्ञान रूपी अमृत को पीने की इच्छा रखता है, उसे श्रावक कहते हैं।
रत्नशेखरसूरि के अनुसार जो दान, शील, तप और भाव की आराधना करता हुआ शुभयोगों से आठ कर्मों की निर्जरा करता है, श्रावकों के सान्निध्य में (श्रावक) सामाचारी का श्रवण कर उसी प्रकार का आचरण करता है, वह श्रावक है।'
अभिधान राजेन्द्रकोश में श्रावक शब्द के तीन पद हैं'श्रा' शब्द श्रद्धान की सूचना करता है। 'व' शब्द सात धर्म-क्षेत्रों में बीज वपन की प्रेरणा देता है। 'क' शब्द क्लिष्ट कर्म को दूर करने का संकेत करता है। श्रन्ति पचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं"
श्रमण का उपदेश सुन लेने से वह श्रोता तो होता है, पर श्रावक नहीं हो जाता। उपदेश उसे श्रावक संज्ञा तभी प्राप्त होती है, जब वह व्रत अंगीकार करता है।'
1 उपासकदशांग - श्रावकाचार संग्रह - भाग -4 - प्रस्तावना प्र. सं. 50
सागारधर्मामृत - पं. आशाधर - 1/15 - श्रावकाचार संग्रह - भाग-2 पृ. सं.-4 श्राद्धविधि प्रकरण - रत्नशेखर सूरि - 15 वीं शतीं 4 अभिधान राजेन्द्रकोश - 'सावय' शब्द - भाग-7 - पृ. सं. 779
युवाचार्य मधुकरमुनि – उपासगदसाओ,प्रस्तावना - डॉ. छगनलाल शास्त्री - पृ. सं. 21
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