Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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3. अवधिज्ञान
जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं ।
4 मनःपर्यवज्ञान जो ज्ञान ढाई द्वीप के संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जान लेता
है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं ।
5 केवलज्ञान
जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
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द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लेकर जो ज्ञान रूपी पदार्थों को
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. जो ज्ञान समस्त द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक साथ
जैनदर्शन में पाँच ज्ञानों के मुख्यतः इक्यावन भेद होते हैं।
मतिज्ञान के अठाईस भेद ।
श्रुतज्ञान के चौदह भेद ।
अवधिज्ञान के छः भेद ।
मनः पर्यवज्ञान के दो भेद । केवलज्ञान का एक भेद
इस प्रकार कुल इक्यावन भेद हुए ।
उपर्युक्त पाँच ज्ञानों और उनके भेद - प्रभेदों की विस्तृत चर्चा आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुयोगद्वारवृत्ति और नन्दीवृत्ति में मिलती है। ज्ञातव्य है कि आचार्य हरिभद्र ने पंचज्ञानों का विस्तृत विवेचन नन्दीवृत्ति में ही किया है, चूंकि नन्दीसूत्र का मुख्य विषय पंचज्ञान है, अतः यह स्वाभाविक था कि नन्दीसूत्रवृत्ति में आचार्य हरिभद्र पंचज्ञानों का ही विवेचन करते । चूंकि हमारा शोध - विषय पंचाशक - प्रकरण है, अतः यहाँ उस सन्दर्भ में विशेष विवेचन आवश्यक नहीं है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान के संक्षिप्त सामान्य स्वरूप का विवेचन हम ऊपर कर चुके हैं। इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान सम्यग्ज्ञान भी हो सकते हैं और मिथ्याज्ञान भी हो सकते हैं। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में सम्यग्दृष्टि जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान सम्यक् होते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान नियम ही मिथ्या हैं। इस आधार पर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ज्ञान का सम्यक्त्व और
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