Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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सर्वार्थसिद्धि के अनुसार जो ज्ञानी पुरुष संसार के निमित्तों को दूर करने के लिए श्रमित है, उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के उपशम होने को सम्यक्चारित्र कहते हैं।
मूलाचार के अनुसार अकषाय भाव चारित्र है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार चित्त अथवा आत्मा की वासनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना सम्यक्चारित्र है।
आचार्य हरिभद्र दीक्षाविधि-पंचाशक में कहते हैं कि मिथ्यात्व, क्रोध आदि को त्याग किए बिना चारित्र का अधिकारी नहीं होता और चारित्र के बिना मोक्ष भी नहीं होता । मोक्ष का अन्यतम कारण तो चारित्र ही है। सम्यक्चारित्र- चारित्र आने पर ही रत्नत्रय की पूर्णता होती है और यह पूर्णता ही मोक्ष है। चारित्र का महत्व सभी धर्मों में मान्य है। यदि ज्ञान है, चारित्र. नहीं है, तो उसका कोई महत्व नहीं, क्योंकि क्रिया को भी ज्ञान के साथ महत्व दिया गया है"ज्ञानक्रियाभ्यांमोक्ष।" ज्ञान के साथ क्रिया हो, तो ही मोक्ष है- यह क्रिया ही तो चारित्र है। ज्ञान है, पर चारित्र नहीं है, तो समझना कि जीवन के सम्पूर्ण अस्तित्वका नाश हो गया। किसी ने कहा है- 'धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सबकुछ गया, अतः चारित्र ऐसा रत्न है कि यदि वह खो गया, तो जीवनपर्यन्त कुत्तों से भी गई बीती जिन्दगी है। यदि चारित्र रत्न है, तो वह संसार की ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ वस्तु है, जिसे व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता ? यहाँ तक कि वह मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। भगवान् महावीर से प्रश्न किया गया- 'हे भगवन् ! चारित्रसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त कर सकता है ?' तब भगवान् महावीर कहते हैं किचारित्रसम्पन्नता से जीव शैलेशी-भाव को प्राप्त करता है। शैलेशी अवस्था को प्राप्त
सर्वार्थसिद्धि - आ. पूज्यपाद - 1/1/5-6 - पृ. 4 तथा 5 मूलाचार - आ. वट्टेकर - 10/9 7 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - डॉ. सागरमल जैन - पृ. 84 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्र - 2/अध्याय
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