Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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का अधिकारी होता है।' मोक्ष की अभिलाषा से किसी सरागी देव की आराधना करना, उसकी पूजा करना, उसे पुष्प-मालाएँ आदि चढ़ाना, उसका सत्कार करना, उसे मान-सम्मान देना इत्यादि मिथ्यात्व के लक्षण हैं। वीतराग में लौकिक-देवों का आरोपण करना भी मिथ्यात्व है। इसी प्रकार अन्य तैर्थिकों यथा- तापस, शाक्य आदि वेशधारियों के साथ अति परिचय रखना ,उनके वचनानुसार कार्य करना आदि भी मिथ्यात्व के ही रूप हैं। यथाछन्दकों की उत्सूत्रमयी धर्मकथा का प्रतिघात करने में असमर्थ होने पर दोनों कानों को बन्द कर लें,क्योंकि जब सामान्य साधु भी उनकी देशना को सुनकर जब मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाते हैं, तो फिर जीवादि तत्त्वों के स्वरूप से अनभिज्ञ एवं आगम-ज्ञान से रहित श्रद्धावान् श्रावक के लिए क्या कहना, अर्थात् वह तो निश्चय से मिथ्यात्व को प्राप्त होता ही जाता है। मित्थ्यादृष्टि और स्वेच्छाचारी की आगमों की व्याख्या विसंवादी होने के कारण प्रकटतः संशय/संदेह उत्पन्न करती है, अतः उनके चैत्य, उपाश्रय आदि स्थान भी अनायतन, अर्थात् निवास के अयोग्य हैं, क्योंकि वे सम्यक्त्व की अशुद्धि या मित्थ्यात्व के हेतु हैं।'
सावयपण्णति में आचार्य हरिभद्र ने सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हुए कहा है कि 'सम्यक्' शब्द के आगे भावार्थ में 'त्व' प्रत्यय होकर सम्यक्त्व शब्द निष्पन्न होता है। सम्यक् शब्द का अर्थ- प्रशस्त अथवा अविरोधी आत्मधर्म को सम्यक्त्व समझना चाहिए। वह सम्यक्त्व कर्मरूप उपाधि के भेद से तीन प्रकार का है
(1) क्षायोपामिक (2) औपशमिक तथा (3) क्षायिक। (1) क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व – आचार्य हरिभद्र के अनुसार जो मोहनीय-कर्म उदय को प्राप्त था, वह क्षीण हो चुका और जो उदय को प्राप्त नहीं है, वह उपशान्त है। इस प्रकार, क्षायोपशमिक-भाव में मोहनीय-कर्म के दलिक आंशिक रूप से क्षय को एवं
धर्मविधि-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 15 धर्मविधि प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 17
धर्मविधि प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 18 'धर्मविधि प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 19
धर्मविधि प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 29 'श्रावक विधि प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 30 पृ- 13 सावय पण्णति - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 43 पृ- 31
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