Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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प्रभावना
सम्यग्दृष्टि साधक को हमेशा जिनशासन की उन्नति के लिए
प्रयत्नशील रहना चाहिए। कभी भी कोई यदि जिनधर्म के प्रति शंका करे, तो उसका
सम्यक् समाधान करना चाहिए ।
4. भक्ति
होना चाहिए।
3.
तीर्थसेवा
सम्यग्दृष्टि साधक को हमेशा साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविक, चतुर्विध- संघरूप तीर्थ की सेवा करना चाहिए, जिससे किसी को जिनशासन के प्रति
ग्लानि के भाव न आए।
जो सम्यक्त्वी जीवमृत्यु सम्मुख दिखने पर भी सम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है, वह इन्द्र आदि के द्वारा भी वन्दनीय है
5.
1.
सम्यग्दृष्टि साधक को हमेशा देव, गुरू, धर्म की भक्ति में तल्लीन
"
—
इंदोविताण पणमइ ही लंतो मियय इडि वित्थाइं ।
मरणंते हु पते सम्मत जे न छडडति । ।''
सम्यक्त्व मलिन न हो, वह निर्मल बना रहे, इसलिए सम्यक्त्व के चार अंग
बताए गए हैं
(1) परमार्थ (2) सुदृष्ट परमार्थ सेवना ( 3 ) व्यापन्न - वर्जना ( 4 ) कुदर्शन - वर्जना | परमार्थ - संस्तव - जीवन के परम लक्ष्य को पहचानना ।
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2. सुदृष्ट परमार्थ – सेवना जिनधर्म-प्ररूपक तीर्थंकर एवं धर्म- प्रसारक श्रमण-वर्ग के
प्रति भक्ति-भाव का होना ।
-
3. व्यापन्न-वर्जना – मिथ्यादृष्टि वालों के सम्पर्क का त्याग करना ।
4. कुदर्शन-वर्जना – मिथ्यादृष्टियों की प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करना । सम्यग्दर्शन
की निर्मलता के लिए ये चारों अंग अखण्ड रहें। इन चारों में से एक अंग का भी भंग सम्यग्दर्शन के अंग-अंग के समान है । 2
1 जिनकुशलसूरि विरचित श्री चैत्यवन्दन कुलकवृत्ति अनु. प्र. सज्जनश्री पृ. - 27
± वसतिमार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसूरि प्रणीत पंचलिंडी प्रकरणम् - अनुवाद - डॉ हेमलता बोलिया, डॉ डी. एस. बया -
आमुख पृष्ठ - XXXI
3 आचारांगसूत्र - सम्मतदंसीण करोतिपाव - 1/3/2
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