Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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धुर्ताख्यान में उन्होंने पौराणिक-परम्परा में पल रही मिथ्या धारणाओं का, अंधविश्वासों का सचोट खण्डन किया है। पौराणिक-परम्परा में गलत विकसित जिन अवधारणाओं का उन्होंने खण्डन किया, वे निम्न हैं
ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण का उत्पन्न होना, उनकी बाहु से क्षत्रिय का, पेट से वैश्य का तथा पैर से शूद्र (क्षुद्र) का उत्पन्न होना। इसी प्रकार, कुछ पौराणिक मान्यताएं शंकर द्वारा अपनी जटाओं में गंगा को समा लेना, वायु द्वारा हनुमान का आविर्भाव, सूर्य द्वारा कुन्ती से कर्ण का प्रादुर्भाव, हनुमान द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों द्वारा पुल बाँधना, श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत को एक अंगुली पर उठाना, पार्वती का जन्म हिमालय से होना, गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से इन्द्र द्वारा अनैतिक रूप से यौन-संबंध स्थापित करना, हनुमान का अपनी पूंछ से लंका को घेर लेना, अण्डे से जगत् की उत्पत्ति, बलराम का माया द्वारा गर्भ-परिवर्तन, अगस्त्य मुनि द्वारा समुद्रपान आदि। ऐसी अनेक पौराणिक अविश्वसनीय घटनाएं हैं, जिन पर हर समय संदेह बना ही रहता है कि ये कैसे सम्भव हैं।
उन्होंने धुर्ताख्यान ध्यान में दो धूर्तों के माध्यम से इन कपोल कल्पनाओं की समीक्षा की, संवाद और व्यंग्यात्मक रूप से उन पर कटाक्ष किया कि यदि पुराणों में कथित ये घटनाएं सत्य हो सकती हैं, तो फिर अन्य क्यों नहीं?
इस प्रकार 'द्विजवदन-चपेटिका' में भी उन्होंने ब्राह्मण-परम्परा में मान्य मिथ्या विश्वासों का एवं वर्ण-व्यवस्था का निर्भीक होकर शिष्ट शैली में सचोट खण्डन किया है। यह निर्विवाद सत्य है कि आचार्य हरिभद्र ने अन्य दर्शनों का अध्ययन करके विभिन्न दार्शनिकों की धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं को स्वीकृति देकर उन्हें धार्मिक-क्षेत्र में स्थान दिया, फिर भी उनमें निहित अंधविश्वासों का अध्ययन करके स्वयं अंधविश्वासी नहीं बने, अपितु निर्भीक होकर सत्य को सामने रखा। अतः, हम यह कह सकते हैं कि हरिभद्र सत्य के समर्थक हैं और मिथ्या धारणाओं के प्रबल समीक्षक भी हैं।
6. दर्शन व धर्म-जगत् में तर्क व बुद्धिमान को स्थान- हरिभद्र में धार्मिक श्रद्धा है, परन्तु वे श्रद्धा को तर्क-विरोधी स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि तर्क के बिना श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं है। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'लोकतत्त्वनिर्णय' में यह स्पष्ट किया है कि न तो उन्हें महावीर से राग है और न उन्हें कपिल से द्वेष है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्ति मद्ववनं यस्य-तस्य कार्यः परिग्रह ।।
56 लोकतत्त्वनिर्णय 38, हरिभद्रसूरि
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