________________
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास
गुरु परम्परा इसमें भी वही दी गई है, इसकी अंतिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं -
उदयरत्न कहि आठोतिरमी ढाले धन्यासी गवाया, संघ चतुर्विध चढ़त दिवाजा, सुखसंपति बहुपाया रे'। यह रचना जिनेन्द्र स्तवनादि काव्य संदोह भाग २ पृ०२४२ पर प्रकाशित है। स्थूलिभद्ररास अथवा संवाद अथवा नवरसो (९ ढाल सं० १७५९ मागसर शुक्ल ११ सोमवार, ऊना गाँव) आदि--सुख संपतदायक सदा, पायक जास सरिंद,
सासण नायक सीवगती वांदुवीर जिणंद । जंबू द्वीपना भरत मां पाडलीपुर नृप नंद, सिकडाल महेंतो तस प्रिया लाछल दे सुखकंद।
श्री स्थलभद्र भोगी भ्रमर मनीवर मां पिण सिंह,
वेश्या विलूधो ते सही न लहे रात निंदीह । रचनकाल--सत्तर से उगणसाठ मागसिर रे सुदी मौन एकादशी रे । पाठांतर-सत्तर से उगणसाठ मागसिर रे सुदी पाँच निमवार शशीरे ।
इसे गलाबचंद लक्ष्मीचंद खंडेलवाल ने प्रकाशित किया है।
शंखेश्वर पार्श्वनाथ नो शलोको अथवा छंद (सं० १७५९ वैशाख कृष्ण ६) रचनाकाल--ओगणसाठ ने उपर सत्तर वरषे,
बइसाख वदी छठी ने दिवसे, एह शलोको हरखे में गायो,
सुख पायो ने दुरगति पलायो । यह शलोका संग्रह और प्राचीन छंद संग्रह में प्रकाशित है।
मुनिपति रास (९३ ढाल २८२१ कड़ी, सं० १७६१ फाल्गुन कृष्ण ११ शुक्रवार, पाटण) आदि
सकल सुखमंगल करण, तरण बुद्धि भंडार
सर्व वस्तुवादे सदा आदि पुरुष अवतार । १. मोहनलाल दलीचंद देसाई -जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० ७६-११४
(न० सं०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org