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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
छोड़ी ते आवी थारां देस में मारु जी,..... इस देसी -- श्री सरसती चरणे नमी, साहेब जी प्रणमी सद्गुरु पाय हो,
झीणां माइजी सूं माहरो मन बस्यो। सीतल जिनवर गायस्यूसा, नामें नवनिध थाय हो । रचनाकाल-संवत सतर उगणोत्तरे सार ही सा,
मांडवि मां चौमास हो, सीतल जिनवर में स्तव्या सा०,
पूरो संघनी आस हो, गुरुपरंपरा -- श्री तपगछ मांहे सोभता सा०,
श्री विजयरत्न सूरिराया हो, देवविजय सुख दीजिइं सा०,
तुम नामे सुख थाय हो,
पंडित देव इम विनवे सा ।' आत्मशिक्षा स्वाध्याय मात्र सात कड़ी की लघु कृति है। नमूने के लिए इसका आदि और अंत दिया जा रहा है - आदि-जीवन चेतन चेतीइं पामीने नरभव सार रें,
सार संसार मां लहि करी चली लहि धर्म उदार रें। अंत-श्री विजयरत्न सूरीस्वरु देवविजय चितधार रे, धर्म थी शिवसुख संपजे, जिम लहो सुख अपार रे ।
जीवन चेतन चेतीइं।२
देवविजय III-ये तपागच्छ के प्रसिद्ध सूरि हीरविजय की परंपरा में उपा० कल्याणविजय> धनविजय और कुंवरविजय> दीपविजय के शिष्य थे। इन्होंने रूपसेन कुमार रास (३६ ढाल सं० १७८७ महा, शुद ७, शुक्रवार, कडीनगर) की रचना की जो दान का महत्व दर्शाता है। इसके प्रारम्भ में महावीर, गौतम, सरस्वती की वंदना है तत्पश्चात् कवि ने दान के विषय में लिखा है -
१. मोहनलाल दलीचन्द दे साई-जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० २१९
(न० सं०) २. वही, भाग ५ पृ. ४१६ (न० सं०) ।
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