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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पढ़े पढ़ावे जे सांभले अंग धरि अतिहं उल्लास, जिन सेवक पदुम कहे, अन्त्य लहि अविचल वास ।' यह रचना शुद्ध साम्प्रदायिक ध्यान पूजा का प्रचार करने के लिए की गई प्रतीत होती है अतः इसमें साहित्यिक सरसता की तलाश व्यर्थ है । भाषा में प्राकृताभास अटपटापन भी है।
परमसागर-तपागच्छीय जयसागर उपा० आप के प्रगुरु और लावण्यसागर गुरु थे। आपने अपनी प्रसिद्ध रचना विक्रमादित्य (अथवा विक्रमसेन लीलावती) रास अथवा चौपई (६४ ढाल) सं० १७२४ पौष शुक्ल १० गड़वाड़ा में पूर्ण किया। इसमें कवि ने स्वयं को उदयसागर, विजयदेव, विजयप्रभ, (वि) जयसागर उपाध्याय के शिष्य लावण्यसागर का शिष्य बताया है। इसमें परमसागर ने रचनाकाल इस प्रकार बताया है--
संवत सत्तर चोबीसा बरसे, पोस दसमें सुखदाया;
दास जन्म कल्याणक दिवसे; पूरण करी सुखपाया। यह रचना विक्रमादित्य प्रबन्ध के आधार पर रचित है, यथा--
पूज्ये विक्रमसेन नृप पाम्यो सुख पडूर, तास चरित सुपरि कहुँ, आणी आणंद पूर। अथवा विक्रमादित्य नरेसर विक्रमसेन महाराया, तास संबंध में रचीउ रंगे सद्गुरु चरण पसाया। विक्रमादित्य प्रबंध सुं जोई ओ मे ग्रंथ निपाया,
आदर करीने उत्तम माणस, सुणयो सह चित्त लाया। गुरु लावण्यसागर को प्रणति निवेदन पूर्वक अन्त में कवि लिखता है
तस पद सेवक परमसागर कवि रचीयो रास रसाल, भाव धरी अ सुणतां भवियण, लहेसो मंगलमाल । तां लगे ओ चोपइ थिर थायो, जां लगि सूरज चंदो,
राग धन्यासी ढाल चउसठमी परमसागर आणंदो, रे । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो-भाग ३, पृ० १५२४-३६
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० १८८-१९० (न०सं०)। २. वही, भाग ४, पृ० ३३५-३३६ (न०सं०) ३. वही, भाग २, पृ० २१७-२२० (प्र०सं०)
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