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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रिया सावन में व्रत लीजै नहीं,
घनघोर घटा जुर आवैगी। चहुं ओर तें मोर जु शोर करें,
वन कोकिल कुहक सुनावैगी । प्रिय रैन अंधेरी में सूझै नहीं,
___ कछु दामिनि दमक डरावैगी, पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं,
छिन में तप तेज छुड़ावैगी। दीपावली के पूर्व सब स्त्रियाँ अपना-अपना घर सजाती हैं, सबके प्रिय घर आते हैं वह कहती है--
पिय कातिक में मन कैसे रहे, जब भामिनि भौन सजावेंगी, रचि चित्र विचित्र सुरंग सबै, घर ही घर मंगल गावेंगी। प्रिय नूतन नारि सिंगार किये, अपनो पिय टेरि बुलावैगी, पिय बारहि बार बरे दियरा, जियरा वुमरा तरसावैगी।
वह अपने तरसने की बात नहीं करती बल्कि प्रिय के तरसने पर तरस खाती है। रचनाकाल रचना में नहीं है, यह भाव प्रधान कृति है। नेमिव्याह काव्यखण्ड है। इसमें नेमिनाथ के विवाह की परंपरा प्राप्त कथा है, जब वे बलि पशुओं की पीड़ा से मर्माहत होकर द्वार से ही वापस लौट जाते हैं तो उसके पिता राजुल से अन्यत्र विवाह की चर्चा करते हैं इस पर वह पिता से कहती है--
काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानत हो यह बात भली है, गालियाँ काढ़त हौ हमको सुनो तात भली तुम जीभ चली है।'
राजुलपच्चीसी-रचनाकाल सं० १७५३ माघ सुदी २, गुरुवार साहिजादपुरा), रचनाकाल देखें
सुन भविजन हो, संवत् सत्रहसे पर त्रेपण जानिये;
सुन भविजन हो, माघ सुदी तिथि दौज वार गुरु जानिये । इसमें राजुल और नेमिनाथ के भावमय चित्र पचीस छंदों में अंकित हैं । यह बड़ी लोकप्रिय रही है । इसकी तमाम प्रतियाँ शास्त्रभंडारों में पाई गई हैं। १. डा० लालचन्द जैन--जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
पृ. ७४-७५ ।
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