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वीरविमल
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आदर स्युं ढाल आठवीं सु० सुणता होइ आणंद हो;
देवचंद वाचक तणो सु०, शिष्य कही वीरचंद हो।' लगता है कि ये कभी वीरजी और कभी वीरचंद नाम लिखते थे।
वीरचंद - इस नाम के कई लेखक मिलते हैं। एक दिगंबर कवि वीरचंद १७वीं शताब्दी में हए हैं जिन्होंने वीरविलास फाग आदि आठ रचनायें की हैं। इनका विवरण इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में दिया जा चुका है। प्रस्तुत वीरचंद १८वीं शताब्दी के लेखक हैं। इनकी गुरुपरंपरा का पता नहीं चल पाया। इनकी रचना 'पंदरमी कला विद्या रास' अथवा वार्ता सं० १७९८ श्रावण कृष्ण पंचमी को रत्नपुरी में पूर्ण हुई थी। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
संवत सतर अठाणुवे, अ० व्रत श्रावण मास; वदि पखे दिन पंचमी, कीनी मन उल्लास । रत्नपुरी अति खूब है, राणा कायम राज,
वीरचंद पूरण करी, सिणगारु सिरताज । संसार में चौदह विद्या प्रसिद्ध है जिन्हें सब जानते हैं किन्तु इसमें पन्द्रहवीं विद्या की चर्चा है, यह अध्यात्म विद्या है, कवि ने लिखा है
चउदे विद्या हे भली, कहे सबे मुनीराय;
पनरमी विद्या इम कहे, जे सहू ने आवे दाय । इस विद्या से अंतरग्रह से मुक्ति होती है। इसका नाम कवि ने 'वार्ता' भी दिया है क्योंकि इसमें गुजराती गद्य में वार्ता भी दी गई है तत्पश्चात् दोहे दिए गये हैं।
वीरविमल---तपागच्छीय सिंहविमल>लाभविमल>मानविजय के ये शिष्य थे। इन्होंने 'भावी नी कर्मरेख रास' सं० १७२२ श्रावण कृष्ण ५, रविवार को बुरहानपुर में पूरा किया। अपनी गुरुपरंपरा में इन्होंने हीरविजय और विजयसेन सूरि तथा इन दोनों सूरियों की १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २५२-२५५;
भाग ३, ५० १२६१ (प्र०सं०) और भाग ४ पृ० ४२४-४२५ (न०सं०)। २. वही, भाग ३, १० १४७० (प्र० सं०) और भाग ५, पृ० ३६३-३६४
(न०सं०) ।
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