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सुबुद्धिविजय अन्त में गुरु की वंदना करते हुए कवि ने लिखा है
अजब गति किम अद्भुत ज्योत जो; मुख थी रे केती बखाणुं रे घणी रे लो। गुलाबविजय ना सुबुद्धि तणी छे आस जो,
तुम ध्याऊ छु हूं ते पद सेवा भणी रे लो।' इसकी प्रति अपूर्ण है अतः रचनाकाल नहीं ज्ञात हो सका है। कवि का भाषा प्रयोग बड़ा शिथिल है और एक छोटी पंक्ति में तीनचार भर्ती के निरर्थक शब्दों को भरकर छन्द का काम किसी तरह चलता किया गया है। उदाहरणार्थ ऊपर दिए छंद की दूसरी पंक्ति के रे, रे, रे, लो को देखा जा सकता है।
सुमतिधर्म - खरतरगच्छ के जिनचंद्रसूरि>धर्म निधान>समयकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने 'भुवनानंद चौपाई' सं. १७२५ माग वदी ५, शुक्रवार को असनीकोट में पूर्ण किया था। यह रचना शील का माहात्म्य प्रकट करने के लिए दृष्टान्त स्वरूप प्रस्तुत की गई है।
सुमतिरंग-ये कीर्तिरत्न सूरि शाखा के चन्द्रकीति के शिष्य थे। आपने सिन्ध और पंजाब में कई वर्षों तक विहार किया, तभी प्रबोधचिंतामणि (मोहविवेक रास), और योगशास्त्र चौपाई नामक आध्यात्मिक ग्रंथों का मरुगुर्जर में पद्यानुवाद किया था। आपकी प्राप्त रचनायें अग्रलिखित हैं -- ज्ञान कला चौपाई, प्रबोध चिंतामणि (मोह विवेक रास) सं० १७२२, योगशास्त्र चौपाई सं० १७२४; हरिकेसी संधि सं० १७२७ मुल्तान, जंबू चौपाई १७२९ मुल्तान, जिनमालिका, चौबीस जिन सवैया १७११ से पूर्व, मंडोवर सहसफणा पार्श्व छंद (६५ गाथा), कीर्तिरत्न सूरि छंद, जिनचंदसूरि कवित्त, अमृतध्वनि और गौड़ी पार्श्वनाथ संबंध आदि ।
इनकी गुरुपरंपरा जैन गुर्जर कवियो में इस प्रकार बताई गई हैखरतरगच्छीय कीर्तिरत्न सूरिशाखा के लावण्यकीर्ति>पुण्यधीर> १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १५३०
. (प्र०सं०) भाग ५, पृ० ३७३-७४ (न०सं०)। २. वही भाग ३, पृ० १३१९ (प्र०सं०) ।। ३. अगरचन्द नाहटा-परंपरा, पृ. ९८-९९ ।
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