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रचनाकाल --
संवत सतर तेडोतरा कार्तिक सुदि चउदिस सुखदाय । श्री जैतारण नगरी मांहि, विमलनाथ पसाय |
आपने भी 'रात्रि भोजन चौपाई' (२४ ढाल, सं० १७२३ मागसर वदी ६ बुध, जयतारण) लिखी है जिसमें रात्रि भोजन के दोष बताते हुए कवि ने लिखा है
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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास
रचनाकाल -
अन्त
रात्रिभोजन दोष दिखाया, दीनानाथ बताया जी, अचल नाम तिहां रहवाया, दिन दिन तेज सवाया जी । धन धन जे नर ओ व्रत पाले ।
सतरे से तेवीसे वरसे हेजे, हिंडो हरसे जी; मगसिर वदि छठि वर बुधि दिवसे, चौपी कीधी सुविसेसे जी ।
आदि- सुबुद्धि लबधि नवनिधि, सुख संपद श्रीकार, पारसनाथ पय प्रणमता, वसु जस हुवे विस्तार । विमलनाथ जिणेसर प्रासादै, श्री जयतारण सुभ सादै जी, ऋद्धि वृद्धि सदा आणंदै, संघ सकल चिर नंदे जी | २
सुरचंद - इन्होंने 'रत्नपाल रासो' की रचना सं० १७३२, वर्धनपुर या वर्द्धमान नगर में तीन खंडों, ३५ ढालों और १००३ पद्यों में पूर्ण किया है । इसके प्रथम खंड में १२, द्वितीय खंड में १५ और तृतीय खंड में ८ ढाल हैं । यह रास परंपरा की एक सुन्दर रचना है। इसके द्वारा कवि ने दान की महिमा का प्रतिपादन किया है । इसमें यत्र-तत्र रसात्मक स्थल मिलते हैं और चरित्रांकन सुन्दर ढंग से किया गया है । ढाल संगीतपूर्ण है । कई रागों जैसे केदार, वसंत, भूपाली, आसावरी आदि का प्रयोग किया गया है । गेयता के लिए टेक शैली का अवलंव
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १४०-१४१, भाग ३, पृ० ११९२ ९४ (प्र० सं० ) और वही भाग ४, पृ० १७५-१७८ ( न० सं०) ।
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