Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Author(s): Shitikanth Mishr
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 571
________________ उपसंहार विक्रम की सत्रहवीं और अठारहवीं शती को मरुगुर्जर जैन साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाता है । इसमें भी १७वीं शताब्दी इस युग का उत्कर्ष काल था । इस शती में साहित्यसृजन की जो वेगवती धारा प्रवाहित हुई थी उसका प्रभाव १८वीं शती के पूर्वार्द्ध तक बना रहा, किन्तु १८वीं शती के उत्तरार्द्ध तक आते-आते उसका वेग मंद हो गया । फलतः पूर्वार्द्ध में लेखकों की जितनी संख्या दिखाई पड़ती है उतनी उत्तरार्द्ध में नहीं दिखाई देती । इसका एक कारण तो यह था कि कई उच्च कोटि के लेखक १७वीं और १८वीं शती पूर्वार्द्ध तक रचना के क्षेत्र में सक्रिय थे, इसलिए यशोविजय, विनयविजय, मेघविजय, धर्मवर्द्धन, जिनहर्ष, आनंदघन, लक्ष्मीवल्लभ और जिनसमुद्रसूरि जैसे उच्चकोटि के साधक और साहित्यकारों का दर्शन १८वींशती के पूर्वार्द्ध में मिलता है किन्तु उत्तरार्द्ध में कुछ गिने-चुने नाम इस कोटि के मिलते हैं जिनमें श्रीमद् देवचंद, महोपाध्याय धर्मसिंह, विनोदीलाल, भूधरदास खण्डेलवाल, नेणसीमूता और विनयचंद आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इन लोगों ने संस्कृत और मरुगुर्जर में पर्याप्त संख्या में स्तरीय साहित्यसृजन किया और जैनसाहित्य की श्रीवृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान किया । वैसे तो प्रारंभ से ही जैनसाहित्य अध्यात्म दर्शन और भक्ति भावना से अनुप्रेरित रहा है किन्तु भक्ति आंदोलन के फलस्वरूप इस शती में भक्तिपूर्ण साहित्य की प्रधानता थी । इस शताब्दी के काव्य साहित्य का अवलोकन करने पर पाठकों को स्वतः स्पष्ट लगेगा कि इस युग में स्तोत्र, विनती-स्तवन पूजा-अर्चन से संबंधित पर्याप्त साहित्य अनेक काव्य रूपों में लिखा गया । प्रायः सभी कवियों ने भक्तिपरक पदों की रचना सूर कबीर, तुलसी आदि की ही तरह किया है। अधिकतर पद-साहित्य भक्ति-भाव से सराबोर और सरस है । इसका यह अर्थ न लगाया जाय कि जैन साहित्य में निवृत्तिपरक, पारलौकिक विषयों पर संबंधित साहित्य ही लिखा गया । अनेक जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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