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महगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गया है और संभव हुआ है तो इनके गद्य के नमूने भी दिए गये हैं । फिर भी गद्य के संबंध में कुछ यहाँ लिखना आवश्यक लग रहा है ।
१८वीं शती में मरुगुर्जर साहित्य की गद्य परंपरा में एक नया मोड़ आया जो विशेष उल्लेखनीय लगता है । इस शती में हिन्दी का प्रभाव बढ़ता प्रतीत होता है अतः राजस्थानी और गुजराती के साथ-साथ जैन लेखकों ने खड़ी बोली हिन्दी या व्रज प्रभावित हिन्दी, ढूंढाड़ी आदि का प्रयोग पूर्वापेक्षा अधिक मात्रा में करना प्रारंभ किया । इसका प्रभाव अगली शती में बढ़कर स्पष्ट हिन्दी- गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के विकास का मुख्य कारण सिद्ध हुआ । इससे पूर्व श्वेताम्बर जैन लेखक प्रायः गद्य भाषा के रूप में हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी के मिले-जुले रूप मरुगुर्जर का ही अधिक प्रयोग करते थे । दिगंबर संप्रदाय के विद्वान् रचनाकार पहले से साहित्य रचना में हिन्दी को वरीयता प्रदान कर रहे थे । इस हिन्दी प्रयोग या उसके भिक्षु प्रयोग के पीछे लेखकों का उद्देश्य हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषी प्रदेशों की जनता में जैन सिद्धांतों का अधिकाधिक प्रचार करना था । यह कार्य लोकभाषा में ही संभव था ।
यशोविजय ने स्वरचित द्रव्यगुणपर्याय रास, सीमंधर स्तवन महावीर स्तवन, सम्यक्त्वना ६ स्थान स्वरूप चौपाई पर बालावबोध लिखा था । वृद्धिविजय कृत उपदेशमाला बालावबोध की रचना में भी उन्होंने सहयोग किया था। इनके अतिरिक्त भीमविजय और मेरु विजय ने मिलकर कल्पसूत्र पर बालावबोध लिखा । केशबजी ने दशश्रुतस्कंध पर बालावबोध लिखा । पद्मसुंदर गणि ने भगवती सूत्र पर उत्तम टब्बार्थ लिखा अर्थात् आगम और शास्त्र संबंधित ग्रंथों को जनसुलभ बनाने के लिए उनपर गद्य में टीकायें, भाष्य, वचनिकायें बालावबोध और टब्बा आदि पर्याप्त संख्या में लिखे गये । कुंवर विजय, कनकविजय ने रत्नाकर पंचविशति पर दानविजय ने कल्पसूत्र स्तवन पर, धर्मसिंह ने २७ सूत्रपर, कनकसुंदर ने ज्ञाताधर्म कथांग पर और अमृतसागर ने सर्वज्ञ शतक पर बालावबोध लिखा ।
जिनहर्ष ने विपुल साहित्य का निर्माण किया, उसमें गद्य भाग भी अनुपात में अच्छा है। दीवालीकल्प बालावबोध, स्नात्रपंचाशिका, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी पर्वकथा आदि अनेक बालावबोध उन्होंने लिखा है । टब्बा संक्षिप्त संक्षिप्त अर्थ बताता है किन्तु बालावबोध में मूल रचना का विस्तृत विवेचन किया जाता है । इन दोनों विधाओं
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