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सुरजी
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अन्त - जंबवती भाग सफलो फल्यो,
करवडि आव्या श्रीकूल अवतार कि, यादव कुल रो दीवलो,
इसो छे अंक भामकुंवर सुजाण । सुरसागर गुरु इम भणे,
हमें गुण गाया रावला, तमे रे समासणो दिद्यो,
अविचल पाट हुं वलहारि वीठला ।'
सुरविजय आप तपागच्छीय सिद्धिविजय के शिष्य थे। इन्होंने रतनपाल रास (३ खंड ३४ ढाल) सं० १७३२ बुरहानपुर में पूर्ण किया। इसके प्रारम्भ में कवि ऋषभादि तीर्थङ्करों और भगवती शारदा की वंदना की हैश्री ऋषभादिक जीनं नमुं वर्तमान चौबीस,
. श्रीमंधर परमुख नमुं विरहमान वली बीस । पुण्डरीक गौतम प्रमुख गणधर हुवा गुणवंत,
चउदसे बावन नमुं मोटा महीमावंत । इसके पश्चात् कवि लिखता है
तास तणे सुपसाउले रचस्युं रास रसाल; रतनपाल गण गाइवा, मुझ मन थयो उज्याल । दान सीयल तप भावना मुगतीमारग मे चार,
रतनपाल तणो चरीत्र दान तणो अधिकार । यह रचना दान का माहात्म्य दर्शाने के लिए रतनपाल का दृष्टांत प्रस्तुत करती है। रचना के अन्त में भी कवि ने यही बात व्यक्त की है, यथा --
दान प्रबन्ध ग्रन्थ में दीठो, सरवरो मे अधिकार,
मे माहरी मति ने अनुसारे, रचियो रास उदार रे । इसमें तपागच्छ के विजयाणंद, विजयराज सूरि और सिद्धिविजय का पुण्यस्मरण गुरुरूप में किया गया है। रचनास्थान और रचनाकाल १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई --- जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २०४
और भाग ३, पृ० १२१७ (प्र० सं०) और भाग ४, पृ० ३५८ ।
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