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हीरसेवक
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उल्लेख श्री देसाई ने जैन गुर्जर कवियो, भाग १, पृ० ३०० पर किया था पर रचनाकाल सं० १४६३ बताया था, बाद में भाग तृतीय में इसमें संशोधन किया और रचनाकाल सं० १७७४ स्वीकार किया । नवीन संस्करण में इसका उल्लेख नहीं मिला । संदिग्ध रचनाकाल है फिर भी समय १८वीं शती बताया गया अतः यहां उल्लेख कर दिया गया है ।
पं० हीरानन्द – इनका रचनाकाल १८वीं शती का प्रथम चरण माना जाता है । ये शाहजहानाबाद में रहते थे। जगजीवन के आग्रह पर इन्होंने 'पंचास्तिकाय' का पद्यानुवाद मात्र दो माह में पूर्ण किया था ।' यह आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत रचना है । इससे हीरानंद की विद्वत्ता और बहुभाषाज्ञान का परिचय मिलता है । उस समय आगरा में ज्ञानियों की मंडली थी जिसमें संघवी जगजीवन के अलावा पं० हेमराज, संघी मथुरादास, भगवतीदास आदि के साथ पं० हीरानंद भी शामिल थे। पंचास्तिकाय भाषा की रचना सं० १७११ में हुई, कविता मध्यम कोटि की है, दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
सुख दुख दीसे भोगना, सुख दुख रूप न जीव,
सुख दुख जाननहार है, ज्ञान सुधारस पीव । ३२१ संसारी संसार में, करनी करै असार, सार रूप जान नहीं, मिथ्यापन को टारि । ३२४
आपने प्राकृत के एक अन्य ग्रंथ द्रव्य संग्रह का भी हिन्दी पद्यानुवाद द्रव्यसंग्रह भाषा नाम से किया है । मूल ग्रंथ के लेखक जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड के रचयिता आचार्य नेमिचंद हैं । इसमें छः द्रव्यों का वर्णन है । यह अनुवाद भी प्रकाशित है । समवशरण स्तोत्र (सं० १७०१ श्रावण शुक्ल ७ बुध) रचनाकाल इस प्रकार लिखा गया है -
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एक अधिक सत्रह सौ समे, सावन सुदि सातमि बुध रमे, ता दिन सब संपूरन भया, समवसरन कहवत परिनया ।
संघवी जगजीवन ने संस्कृत का आदि पुराण पं० हीरानंद को पढ़ने
के लिए दिया था, उसकी सहायता से उन्होंने यह रचना की है । इसमें ३०१ पद्य हैं । समवशरण की शोभा का वर्णन निम्नलिखित छंदों में देखिये
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१. नाथूराम प्रेमी -- हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ६० ।
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