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सुरेन्द्रकीर्ति
५३५ || सुरेन्द्रकोति --..-बलात्कारगण जेरहट शाखा के सकलकीर्ति के पश्चात् सं० १७५६ में ये भट्टारक पद पर आसीन हुये थे, इनकी कोई मरुगुर्जर (हिन्दी) की रचना अब तक उपलब्ध नहीं हो सकी है।
IV सुरेन्द्रकीति--ये भट्टारक नरेन्द्र कीति के शिष्य थे। इनके बचपन का नाम दामोदर दास था। ये काला गोत्रीय खण्डेलवाल श्रावक थे। बड़े संयमी और विद्याव्यसनी थे। इनके गुणों पर मुग्ध होकर भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति ने इन्हें अपना प्रमुख शिष्य बनाया और सं० १७२२ में इन्हें भट्टारक की गादी पर बैठाया गया। सांगानेर में इस अवसर पर बड़ा उत्सव किया गया था। उसी समय इनका नाम सुरेन्द्रकीर्ति रखा गया । ये संयम, साधना और शास्त्र के साथ साहित्य के भी पारखी थे। इनके समय आमेर शास्त्र भंडार की अच्छी प्रगति हुई। नवीन प्रतियाँ लिखवाई गई और अनेक ग्रंथों का जीर्णोद्धार हुआ। अब तक इनकी किसी मौलिक हिन्दी कृति का पता नहीं चल पाया है, संभवतः खोज के प्रश्चात् इनकी कोई रचना प्राप्त हो जाय । उक्त दोनों सुरेन्द्रकीति नामक भट्टारकों की रचनायें यद्यपि नही मिली हैं परंतु इन लोगों ने साहित्य साधना के क्षेत्र में अच्छा योगदान किया था।
सेवक-आप कवि लोहट के गुरु थे। तदनुसार इनका भी समय १८ वीं (वि०) शती का प्रथम चरण ही होना निश्चित है। इनकी दो रचनायें और पचासों पद प्राप्त हैं। प्रथम रचना 'नेमिनाथ का दस भव वर्णन' है। यह रचना चौधरियान मंदिर, टोंक में उपलब्ध है। इसमें नेमिनाथ और राजीमती के दस जन्मों के अनन्य संबंध पर प्रकाश डाला गया है। इनकी दूसरी रचना 'चौबीस जिनस्तुति' जैनमंदिर निवाई (टोंक) में सुरक्षित है। इसमें कुल ३० छंद हैं। इनके पद जयपुर के छाबड़ों के मंदिर और तेरहपंथी मंदिर के गुटका नं० ४७ और पद संग्रह नं० ९४६ में संकलित हैं। इनके शिष्य लोहट अच्छे कवि थे । उनका परिचय इसी खण्ड में यथास्थान 'लोहर' नाम से दिया जा चुका है। १. डा० कस्तूरचंद कासलीवाल--राजस्थान के जैन संत, पृ० १६९-१७० । २. डा. गंगाराम गर्ग का लेख-राजस्थान का जैन साहित्य सम्पादक
अगरचन्द नाहटा, कस्तूरचन्द कासलीवाल प० २१९ ।
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