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हरिराम
राग नभ निधी चन्द कर सो संवत शुभ जानि, फागुण वदी त्रयोदशी मांझ लिखी सो जांनि ।
इससे १९०७ संख्या निकलती है, यह रचनाकाल न होकर प्रति का लेखन काल हो सकता है । अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैंग्रन्थ छंद रत्नावली सारथ याको नाम, भूक्षन भरती तैं भयो कहे दास हरिराम । २११। इति श्री छंद रत्नावली सम्पूर्ण '
हस्तरुचि ---ये तपागच्छीय लक्ष्मिरुचि > विजयकुशल > उदय रुचि > तिरुचि के शिष्य थे । इन्होंने 'चित्रसेन पद्मावती रास' सं० १७१९ विजयदशमी, अहमदाबाद में लिखा । इसके प्रारम्भ में कवि ने अपने गुरु की वंदना करते हुए लिखा है-
श्रीमद् ॐ हितरुचि गणि गुरुभ्यो नमः,
हितरुचि ने संस्कृत में (सं० १७०२ ) नलचरित्र लिखा था ।
दूहा -- श्री जिनपति प्रणमु सदा, रंगे ऋषभ जिणंद, प्रणमे पदकंज जेहना, सहजे सकल सुरेन्द्र ।
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इस क्रम में शांतिनाथ, शंखेश्वर और महावीर की वंदना के पश्चात् गौतम गणधर, सरस्वती और गुरु की पुनः वन्दना की गई है । इस रास में शील का महत्व प्रतिपादित किया गया है, यथा-
सीलें सहजें संपदा, सीलें लील विलास, सीलें सिव सुख पामीरं. सीलें पुहचि आस । चित्रसेन पद्मावती पामा अविचल राज, सील पसायें तेहना सीधां वंछित काज ।
गुरुपरंपरा लिखते समय कवि ने सूरि हीरविजय और सम्राट् अकबर की भेंट का उल्लेख किया हैं, तत्पश्चात् विजयसेन, विजयदेव और लक्ष्मीरुचि आदि गुरुओं का स्मरण किया है । लेखक का नाम इन पंक्तियों में है-
१. कस्तूरचन्द कासलीवाल -- राजस्थान के जैन शास्त्रभंडारों की ग्रंथसूची भाग ३, पृ० ८८
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