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मेरु गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास
...सेवक नामक एक अन्य कवि मन्नाराम के पुत्र थे, उन्होंने 'नेमवत्तीसी' नामक रचना सं० १७७८ में पूर्ण की थी । "
इसका विवरण - उद्धरण नही प्राप्त हो सका है ।
सौभाग्य विजय - आप तपागच्छीय साधुविजय के शिष्य थे । इन्होंने विजयदेव सूरि संझाय ( ५७ कड़ी ) सं० १७१३ के पश्चात् जूनागढ़ में पूर्ण की। विजयदेव सूरि सं० १७१३ में स्वर्गवासी हुए, अतः यह रचना उसके बाद ही किसी समय लिखी गई होगी । इसका प्रारंभ इन पंक्तियों से हुआ है
सरस सुमति आपो मुझ सरसति, वरसती वचन विलास रे, श्री विजयदेव सूरीसर साहिब, गायतां अतिहि उल्लास रे । अंत-इम त्रिजग भूषण दलित दूषण श्री विजयदेव सूरीसरो, ऋद्धि वृद्धि कल्याण कारण, वांछित पूरण सुरतरो । इम थुण्यो जीरणगढ़ मांहि अति उच्छाहि ओ गुरो, श्री साधुविजय कविराय सेवक सौभाग्यविजय मंगल करो ।
यह रचना जैन ऐतिहासिक काव्य संचय और ऐतिहासिक संञ्झाय माला भाग १ में प्रकाशित है । इस संञ्झाय से ज्ञात होता है कि विजयदेव सूरि ईडर निवासी थिरा ओसवाल की पत्नी लाडिम दे की कुक्षि से सं० १६३४ में पैदा हुए थे । सं० १६४३ अहमदाबाद में विजयसेन सूरि से दीक्षिप्त हुए थे । सं० १६५६ खंभात में इन्हें आचार्य पद और सं० १६७१ में भट्टारक पद प्रदान किया गया था । सं० १६७४ में सम्राट् जहाँगीर ने महातपा विरुद प्रदान किया । मेवाड़ के राणा जगतसिंह और जामनगर के जामसाहब ने भी इन्हें राजसम्मान दिया था । ये प्रख्यात साधु और आचार्य थे, सं० १७१३ में इनका स्वर्गवास हुआ था । यह रचना सौभाग्यविजय ने विजयप्रभ सूरि के समय पूर्ण की थी ।
१. उत्तमचन्द्र भंडारी की सूची, प्राप्तिस्थान २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर (प्र०सं० ) और भाग ४, पृ० २५८- २५९ ( न०सं० ) ।
३. जैन ऐतिहासिक काव्यसंचय, विजयदेवसूरि निर्वाण संञ्झाय |
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पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी
कवियो, भाग २, पृ० १८०
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